खाद तथा उर्वरकों का महत्व और वर्गीकरण

खाद पौधों के विकास के लिए आवश्यक तत्व है। जीव-जन्तुओं की तरह वनस्पति भी सजीव होती है। पौधे भूमि से खाद्य तत्वों को ग्रहण करते हैं। पौधे भूमि से खाद्य तत्व ग्रहण करते आ रहे हैं तथा इन तत्वों की कमी आ जाना प्राकृतिक है,

खाद तथा उर्वरकों का महत्व और वर्गीकरण

इन तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए खाद का प्रयोग किया जाता है। 

खाद की आवश्यकता

पौधे भूमि से पोषक तत्वों, खाद्यांशों आदि को आदिकाल से ग्रहण करते आ रहे हैं, इसलिए खाद्यांश तत्वों की कमी होती जा रही है, इसलिए हमें खाद की आवश्यकता होती है। भूमि के पोषक तत्वों की हानि पौधों तथा वनस्पति के साथ-साथ भौतिक तथा रासायनिक क्रियाओं से भी होती है। इसे निम्न प्रकार से वर्णित किया गया है-

(1) सिंचाई द्वारा - सिंचाई करते समय भूमि के खाद्यांश तत्व पानी के साथ रिसकर भूमि के नीचे चले जाते हैं।

(2) फसलों द्वारा-भूमि में जब फसल का उत्पादन किया जाता है, तब पोषक तत्वों की भूमि में कमी हो जाती है। फसल के उत्पादन को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि ये प्राणी वर्ग के लिए आवश्यक है, इसलिए खाद तत्वों का प्रयोग किया जाता है।

(3) वनस्पतियों द्वारा — वनस्पति भी अन्य फसलों की तरह भूमि से पोषक तत्व ग्रहण करती है, इस कारण भी भूमि में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है, इन कमियों को पूरा करने के लिए भी खाद पदार्थों का प्रयोग किया जाता है।

(4) नाइट्रिफिकेशन एवं डिनाइट्रिफिकेशन -भूमि की रासायनिक क्रियाओं द्वारा भूमि का नाइट्रेट नाइट्रोजन में बदल जाता है और ये नाइट्रोजन डिनाइट्रिफिकेशन क्रिया द्वारा उड़कर वायुमण्डल में मिल जाता है। ये नाइट्रोजन भूमि का आवश्यक पोषक तत्व होता है।

पौधों के आवश्यक तत्व — पौधों के आवश्यक तत्वों को अग्र प्रकार वर्गीकृत कियाजाता है-

(1) वायुमण्डल से प्राप्त होने वाले तत्व- इन तत्वों के अन्तर्गत कार्बन,ऑक्सीजन, हाइड्रोजन तथा नाइट्रोजन आते हैं।

(2) भूमि से प्राप्त होने वाले तत्व- इन तत्वों के अन्तर्गत फॉस्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, गन्धक, लोहा, मैग्नीशियम एवं नाइट्रोजन आदि आते हैं। इसके अतिरिक्त इन्हें इस प्रकार भी वर्गीकृत किया जा सकता है--

(i) प्रमुख पोषक तत्व — इन तत्वों के बिना न तो पौधों का अंकुरण हो पाता है और न ही विकास; जैसे—कार्बन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फॉस्फोरस व पोटाश आदि । 

(ii) मध्यम पोषक तत्व — इन तत्वों का मिलना भी पौधों के लिए आवश्यक होता है; जैसे— कैल्शियम, गन्धक, मैग्नीशियम तथा लोहा आदि।

(iii) सूक्ष्म तत्व — सूक्ष्म तत्वों में प्रमुख तत्व इस प्रकार हैं- कार्बन (C), ऑक्सीजन (O), हाइड्रोजन (H), नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P), पोटाश (K), कैल्शियम (La), मैग्नीशियम (Mg), गन्धक (S) और लोहा (Fe)। इन सभी तत्वों का पौधों के विकास में बहुत महत्व है।

खादों का वर्गीकरण 

(1) कार्बनिक तथा जैविक खाद। 

(2) अकार्बनिक या कृत्रिम खाद ।

1. कार्बनिक जैविक खाद 

भूमि में जैविक या जीवांश पदार्थों की प्राप्ति हेतु जिन खाद पदार्थों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें जैविक खादें कहते हैं। जैविक पदार्थ भूमि में हरे पौधों, मल-मूत्र, जीव-जन्तु, कीटाणु व फफूँदी आदि से प्राप्त होते हैं। जैविक पदार्थों का भूमि को उर्वरा शक्ति से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

जैविक खाद के लाभ –

(1) इनके प्रयोग से कृषि क्रियाएँ करने में सुविधा होती है। 

(2) भौतिक तथा रासायनिक क्रियाओं में जीवांश पदार्थ सहायक होते हैं। जैविक खाद के प्रकार—इसके निम्नलिखित प्रकार हैं-

(I). गोबर की खाद—गोबर खाद पशुओं के गोबर, मूत्र तथा उनके नीचे के बिछावन आदि से तैयार होती है। यह खाद सभी खादों में महत्वपूर्ण खाद है।

तैयार करने की विधि-3 x 2 x 1½ मीटर के आकार का एक गड्ढा खोद दिया जाता है तथा उसमें गोबर भर दिया जाता है। इसका आकार घटाया बढ़ाया भी जा सकता है। गड्ढे में वर्षा का जल नहीं भरने देना चाहिए और गर्मी से खाद को जलने से बचाने के लिए उसमें पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए।

प्रयोग विधि—गोबर खाद को दो प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है- 

(1) खाद के ढेर लगाकर, 

(2) खेत में बिखेरकर ।

लाभ—(1) भूमि को भौतिक स्थिति में सुधार आता है। 

(2) भूमि के सभी पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। . 

(3) जल शोषण तथा जल धारण करने की शक्ति मिट्टी में होती है।

(4) वायु का संचार भली-भाँति होता है। 

(II). कम्पोस्ट खाद—भारत में अधिकतर गोबर को ईंधन के रूप में जला दिया जाता है। गोबर की खाद की कमी हो जाती है। कम्पोस्ट खाद घास-फूस, पेड़-पौधों की गिरी हुई पत्तियों, पुवाल चारे का अवशेष, गन्ने के अगोले, डंठल, कूड़ा-करकट तथा जलकुम्भी आदि से तैयार की जाती है।

तैयार करने की विधि जाड़े अथवा गर्मियों में कम्पोस्ट तैयार करने के लिए 3 × 2 × 1 मी. गड्ढा खोदकर सबसे नीचे सूखी पत्तियों, फिर गोबर की 5 सेमी. नोटी सतह उसके ऊपर घास-फूस की 7 सेमी. मोटी एक तह फैलाकर छोड़ देना चाहिए। इसे ही गड्ढा भरते रहना चाहिए। जब गड्ढा भूमि से 30 सेमी. ऊपर उठ जाए तो उसे मिट्टी से ढँक देना चाहिए। इसकी पलटाई करते रहना चाहिए। 4-5 माह में खाद तैयार हो जाती है।

कम्पोस्ट बनाने की विभिन्न विधियाँ—कम्पोस्ट खाद के महत्व को देखकर कृषि - विशारदों ने इस पर अनुसंधान आरम्भ किये तथा कम्पोस्ट बनाने की नयी तकनीक को जन्म दिया।

(1) एडको विधि— सर्वप्रथम इसका आविष्कार इंग्लैण्ड से हुचिन्सन और रिचर्ड महोदय ने किया। इस विधि के कारण कम्पोस्ट खाद बनाने से 'एडको मिक्सचर' का प्रयोग किया।

(2) इन्दोर विधि—इस विधि में गड्ढे की माप 10 x 4% मीटर होती है। गड्ढों में ढाल भी रखा जाता है। इसमें पौधों के अवशेष लकड़ी, बुरादा, पशुओं का गोबर, लकड़ी की राख, मूत्रयुक्त मिट्टी प्रयोग में लायी जाती है। 

(3) एक्टीवेटेड कम्पोस्ट विधि—इस विधि की खोज सर्वप्रथम 'भारतीय विज्ञानशाला' बैंगलौर में फाउलर और रीगे महोदय ने की। इस विधि में कम्पोस्ट बनाने वाले पदार्थों में गोबर, विष्टा, मूत्र, सीवेज इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। लाभ-कम्पोस्ट खाद से निम्नलिखित लाभ प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होते हैं-

(1) खाद तैयार करने में न्यूनतम समय लगता है। 

(2) यह कम व्यशील होती है तथा खाद अधिक तैयार होती है। 

(3) जीवांश पदार्थों की हानि नहीं होती। 

(4) नाइट्रोजन अधिक मात्रा में सुरक्षित रहता है। 

(5) खाद फसलों को अपेक्षाकृत अधिक लाभ होता है।

(III). हरी खाद - हमारे देश में ईंधन की कमी के कारण अधिकतर गोबर ईंधन के रूप में जला दिया जाता है। गोबर की अपेक्षा हरी खाद का उपयोग करना अत्यधिक लाभप्रद होता है।

हरी खाद उसे कहा जाता है जब भूमि में उर्वरक प्रदान करने वाली फसलों को खेत में दबाकर तथा सड़ाकर खाद बनायी जाती है। ऐसी फसलें बोने के 3-4 सप्ताह बाद खेत की गहरी जुताई करके सड़ने के लिए मिट्टी में दबा दी जाती है।

हरी खाद के लिए फसल का चयन-चयन को चुनते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

(1) फसल सस्ते बीज वाली हो। 

(2) शीघ्र बढ़ने वाली फसल हो। 

(3) फसल की जड़ गहरी होनी चाहिए। 

(4) भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाली हो।

हरी खाद के लाभ - हरी खाद प्रयोग करने से निम्नलिखित लाभ होते हैं... 

(1) कम खर्च करके अधिक खाद तैयार की जा सकती है।

(2) मिट्टी की भौतिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है। 

(3) जीवाणुओं की संख्या अधिक हो जाती है। 

(4) पौधों के पोषक तत्वों में वृद्धि होती है।

(IV). खली की खाद—सभी प्रकार की खादों में विघटन में समय अधिक लगता है । इस दृष्टि से खली की खाद बहुत उपयोगी है। इसमें नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है तथा सड़ने में समय भी कम लगता है।

प्रयोग करने की विधि - इस खाद को जल्दी अपघटन योग्य बनाने हेतु इसे बारीक कणों में कूट लिया जाता है इसके पश्चात् फसल बोने के पूर्व खेत में समान रूप से छिटकाकर जुताई कर देनी चाहिए।

प्रकार- नीम, महुआ, अण्डी तथा कुसुम की खली मुख्य हैं। ये खाद के रूप में प्रयोग की जाती हैं। 

2. अकार्बनिक या कृत्रिम खादें

अकार्बनिक खादें वे खादे हैं, जो पौधों के आवश्यक तत्वों; 

जैसे— नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश में से किन्हीं एक या दो की पूर्ति करती है। इन खादों का प्रयोग करने से पौधों की वृद्धि तथा विकास अच्छी तरह होता है।

अकार्बनिक खादों का वर्गीकरण-इन खादों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, जो निम्नलिखित हैं-

(1) नाइट्रोजन प्रधान उर्वरक,

(2) पोटाश प्रधान उर्वरक,

(3) फॉस्फोरस प्रधान उर्वरक

(1) नाइट्रोजन प्रधान उर्वरक—ये वे खादें हैं, जो पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करती है ।

 इनको चार भागों में विभक्त किया जाता है— 

(i) नाइट्रिक नाइट्रोजन वाले उर्वरक - सोडियम नाइट्रेट और कैल्शियम

(ii) नाइट्रिक नाइट्रोजन वाले नमक - अमोनिया सल्फेट। 

(iii) नाइट्रोजन व अमोनिया/एक साथ रखने वाले—अमोनिया नाइट्रेट। 

नाइट्रोजन-प्रधान प्रमुख उर्वरक —ये निम्नलिखित हैं- 

(i) सोडियम नाइट्रेट, 

(ii) कैल्शियम सिथनाइड, 

(iii) अमोनिया सल्फेट, 

(iv) यूरिया, 

(v) अमोनिया नाइट्रेट |

(2) पोटाश प्रधान उर्वरक—जिन फसलों को पोटाश की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, उन्हीं फसलों को पोटाश की मात्रा दी जाती है, क्योंकि हमारे देश की मृदा में पोटाश की मात्रा उपयुक्त होती है। इन फसलों को पोटाश की अधिक आवश्यकता होती है; जैसे—आलू एवं तम्बाकू की फसल को पोटाश उर्वरक देना उपयोगी हैं।

पोटाश प्रधान मुख्य उर्वरक—ये निम्नलिखित हैं-

(i) पोटेशियम सल्फेट, 

(ii) पोटेशियम क्लोराइड, 

(iii) काइनाइट। 

(3) फॉस्फोरस प्रधान उर्वरक - इस प्रकार की उर्वरकों को फॉस्फोरस (P), फॉस्फोरस ऑक्साइड (P2O2) और चूने का बोन फॉस्फेट (B.P.L.) में सम्मिलित किया जाता है।


फॉस्फोरस प्रधान उर्वरक—ये निम्नलिखित हैं- (i) सुपर फॉस्फेट, (ii) हड्डी का चूरा, (iii) बेसिक स्लैग ।

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