शिक्षा का सार्वभौमीकरण (UNIVERSALISATION OF EDUCATION)
सार्वभौमीकरण (Universalisation)
सार्वभौमीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द यूनिवर्सलाइजेशन (Universalisation) का हिन्दी रूपान्तरण है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इंग्लैण्ड में किया गया।
इंग्लैण्ड में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क किया गया तो उस समय उनका उद्देश्य शिक्षा को देश के एक निश्चित आयु वर्ग के सभी बच्चों को सुलभ कराना था। इसी के लिए उन्होंने 'यूनिवर्सलाइजेशन अर्थात् सार्वभौमीकरण शब्द का प्रयोग किया।
वर्तमान में सार्वभौमीकरण शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक हो गया है। भारत में शिक्षा के सार्वभौमीकरण से अभिप्राय- कक्षा 1 से कक्षा 8 तक के बच्चों को शत-प्रतिशत शिक्षा सुलभ कराना एवं बच्चे बीच में विद्यालय छोड़कर न जाएँ, उन्हें शत-प्रतिशत रोके रखना तथा शत-प्रतिशत बच्चों को कक्षा 8 में उत्तीर्ण कराना है। इन्हीं उद्देश्यों को पूर्ण कर भारत में शिक्षा के सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया को सार्थक बनाया जा सकता है ।
शिक्षा के सार्वभौमीकरण के उद्देश्य (Objectives of Universalisation of Education)
(1) बालक का शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक विकास करना ।
(2) बालक का नैतिक व चारित्रिक विकास करना ।
(3) बालक का सांस्कृतिक विकास करना ।
(4) उसमें सामाजिक कुशलता विकसित करना।
(5) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना ।
(6) उसमें विवेकपूर्ण निर्णयन क्षमता का विकास करना ।
(7) उसमें अन्तर्वैयक्तिक संचार कौशल का विकास करना ।
(8) सामाजिक समायोजन कौशल विकसित करना ।
शिक्षा के सार्वभौमीकरण की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Universalisation of Education)
सार्वभौमीकरण की प्रगति एवं उससे सम्बद्ध उपलब्धियों का आंकलन उसकी आवश्यकता, महत्त्व एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर किया जा सकता है। शिक्षा के सार्वभौमीकरण की आवश्यकता एवं महत्त्व के निम्नांकित कारण हैं-
(1) निरक्षर को साक्षर बनाने के लिए,
(2) दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए,
(3) राजनैतिक जागरूकता लाने एवं जनतन्त्र को सफल बनाने के लिए,
(4) राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने के लिए,
(5) सामाजिक समानता तथा न्याय की स्थापना के लिए,
(6) साम्प्रदायिकता की समाप्ति के लिए एवं
(7) व्यावसायिक प्रगति के लिए।
शिक्षा के सार्वभौमीकरण में बाधाएँ (Obstacles in Universalisation of Education)
शिक्षा के सार्वभौमीकरण में कुछ बाधाएँ हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) अनिवार्य शिक्षा कानून का सही प्रकार से पालन न होना- शिक्षा को अनिवार्य करने सम्बन्धी सभी राज्यों में कानून बनाए गए हैं परन्तु इनमें कहीं-न-कहीं कुछ कमी अवश्य है। इस कानून का सही प्रकार से पालन न हो पाने के कारण प्राथमिक शिक्षा का प्रसार नहीं हो पा रहा है।
(2) सुविधाओं की कमी - प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक करने के लिए जिन सुविधाओं की आवश्यकता है उन्हें सरकार उपलब्ध करवाने में असमर्थ रही है। स्थानीय निकाय भी धनाभाव के कारण इन योजनाओं को ठीक ढंग से पूरा नहीं कर पाती।
(3) अपव्यय व अवरोधन-सार्वभौमीकरण के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है, प्राथमिक विद्यालयों में शत्-प्रतिशत नामांकन के साथ शत्-प्रतिशत छात्रों को स्कूलों में शिक्षा पूरी होने तक रोके रखना परन्तु यह देखा गया है कि बहुत से छात्र आर्थिक या अन्य समस्याओं के कारण शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं या एक ही कक्षा में कई वर्षों तक रुके रहते हैं। प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण में यह बहुत बड़ी समस्या है।
(4) संसाधनों की कमी-सार्वभौमीकरण न होने का एक कारण संसाधनों की कमी भी है। सरकार शिक्षा बजट का 5% ही आवश्यक संसाधनों के लिए व्यय करती है जिससे आवश्यक संसाधनों की पूर्ति नहीं हो पाती।
शिक्षा का सार्वभौमीकरण करने के (Measures for Universalisation of Education)
उपाय शिक्षा का सार्वभौमीकरण करने के सम्बन्ध में निम्न उपाय किए जा सकते हैं-
(1) माता-पिता को जागरूक करना अधिकतर माता-पिता निरक्षर होने के कारण वे शिक्षा का मूल्य नहीं समझते हैं। उन्हें शिक्षा के महत्त्व के बारे में बताया जाना चाहिए। इसके लिए दूरदर्शन तथा प्रचार के अन्य साधनों का भली प्रकार प्रयोग किया जा सकता है, उन्हें स्वयं भी प्रौढ़ शिक्षा का महत्त्व समझना होगा।
(2) आर्थिक सहायता- सरकार के द्वारा प्राथमिक शिक्षण-संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान की जाए जिससे इन संस्थाओं में आवश्यक शिक्षण सामग्री की व्यवस्था की जा सके। सरकार भी शिक्षा में संख्यात्मक वृद्धि पर बल दे।
(3) शिक्षकों की पर्याप्त व्यवस्था-योग्य अध्यापकों को इस ओर आकर्षित करने के लिए उनका वेतन बढ़ाया जाए। उन्हें फण्ड, बोनस तथा आवास की व्यवस्था दी जाएं। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें उपयुक्त सुविधाएं दी जाएँ।
(4) शिक्षा नीति में सुधार - पहले सरकार शिक्षा को अनिवार्य रूप से विकसित करे उसके बाद उसको बुनियादी बनाने पर जोर दे। ये दोनों काम बहुत खर्चीले हैं इसलिए पहले सरकार शिक्षा को अनिवार्य रूप से विकसित करे और बाद में उसको बुनियादी बनाने पर जोर दे ।
शैक्षिक अवसरों की समानता (EQUALITY OF EDUCATIONAL OPPORTUNITIES)
शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ (Meaning of Equality of Educational Opportunities)
भारत में सभी बच्चों को बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर एवं सुविधाएँ प्रदान करना ही शैक्षिक अवसरों की समानता है। भारतीय संविधान की धारा 29 (2) के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है कि राज्य द्वारा घोषित या राज्यनीति से सहायता प्राप्त करने या किसी शिक्षा संस्था में किसी नागरिक को धर्म, प्रजाति, जाति, भाषा या उनमें से किसी एक के आधार पर प्रवेश देने से नहीं रोका जाए। अतः समानता का अर्थ यह है कि विशेष अधिकार वाला वर्ग न रहे तथा सबको उन्नति के समान अवसर मिले।"
अन्ततः कहा जा सकता है कि शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य द्वारा देश के सभी बालकों के लिए स्थान, जाति, धर्म अथवा लिंग आदि किसी भी आधार पर भेद किए बिना एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क रूप से सुलभ कराना तथा शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों के निवारण करना। साथ ही साथ देश के सभी बच्चों एवं युवकों क इससे आगे की शिक्षा उनकी रुचि, रुझान, योग्यता, क्षमता एवं आवश्यकतानुसार सुलभ कराना तथा शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली उनकी कठिनाइयों का निवारण करना।"
शैक्षिक अवसरों की समानता की विशेषताएँ (Characteristics Opportunities) of Equality of Educational )
शैक्षिक अवसरों की समानता की विशेषताएँ निम्नलिखित है-
(1) देश के सभी नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। शिक्षा जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। अतः शिक्षा प्राप्त करने हेतु कई नियमों व कानूनों का निर्माण किया गया है।
(2) प्रजातन्त्र की सफलता का आधार समानता ही है। यदि प्रजातन्त्र को सफल बनाना है तो नागरिकों को शिक्षा प्रदान करके विकसित होने का समान अवसर उपलब्ध कराना होगा।
(3) राष्ट्र का विकास नागरिकों के विकास पर निर्भर होता है तथा राष्ट्र के विकास की शक्ति शिक्षा है। इसलिए नागरिकों के प्रति भेदभाव के हीन दृष्टि को खत्म करना होगा।
(4) शिक्षा ही एकमात्र ऐसा साधन है जो नागरिकों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करता इसलिए सबको शिक्षों का समान अवसर मिलना चाहिए।
शैक्षिक अवसरों में असमानता के कारण (Reasons for Inequality in Educational Opportunities)
हमारे देश में शैक्षिक अवसरों की समानता प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रयास किए गए हैं लेकिन आज भी शिक्षा के क्षेत्र में समानता ले आने के लिए अनेक कठिनाईयाँ अनुभव की जा रही है। अतः हम शैक्षिक अवसरों की समानताओं से सम्बन्धित समस्याओं या कठिनाइयों के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
1) लैंगिक भेदभाव,
2) विद्यालयों की दूरी एवं अनुपलब्धता.
3) आर्थिक समस्याएँ.
4) प्रादेशिक समस्याएँ,
5) शारीरिक विकलांगता,
6) घर का दूषित वातावरण, एवं
7) मानसिक असन्तुलन ।
शैक्षिक अवसरों में समानता के लिए सुझाव (Suggestions for Equality in Educational Opportunities)
शैक्षिक अवसरों में समानता लाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-
(1) शिक्षा में समानता लाने के लिए शिक्षा की सार्वभौमिकता अनिवार्य है।
(2) शिक्षा में समानता लाने के लिए उच्च स्तरीय शिक्षा के लिए योग्यता के आधार पर चुनाव किया जाना चाहिए। किसी के साथ, जाति, धर्म, भाषा, रंग एवं लिंग आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए।
(3) शैक्षिक समानता के लिए प्रौढ शिक्षा की आवश्यकता है क्योंकि बच्चों को शिक्षित करने के पहले उनके माता-पिता को शिक्षित करने की आवश्यकता है।
(4) शैक्षिक समानता के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिए जो बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा भी प्रदान करें।
(5) ग्रामीण व शहरी शिक्षण संस्थाओं में व्यावहारिक शिक्षा समान रूप से लागू होनी चाहिए। सभी छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय चुनने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
(6) संविधान द्वारा बनाई गई नीतियों को समय-समय पर आवश्यकतानुसार क्रियान्वित किया जाना चाहिए।
शिक्षा का व्यवसायीकरण (VOCATIONALISATION OF EDUCATION)
शिक्षा के व्यवसायीकरण की अवधारणा (Concept of Vocationalisation of Education)
आर्थिक व सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित व्यवसायों के लिए आवश्यक तकनीकों का ज्ञान प्रदान करना तथा विभिन्न कौशलों को व्यावहारिक रूप से सीखना ही शिक्षा का व्यवसायीकरण है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के लिए सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रमों में व्यावसायिक ज्ञान, कौशल व तकनीकों को सम्मिलित करना होगा ताकि छात्र अपना अध्ययन पूरा करके जीविकोपार्जन में सक्षम हो सकें।
वर्तमान में शिक्षा के व्यवसायीकरण से अर्थ माध्यमिक स्तर पर कार्यानुभव शिक्षा शुरू करने तथा +2 पर व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू कर उसे सफल बनाने से है।
व्यवसायीकरण की विशेषताएँ (Characteristics of Vocationalisation)
व्यवसायीकरण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) व्यवसायीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अभाव में समाज एवं मनुष्य की उन्नति एवं प्रगति की सम्भावना नगण्य होती हैं।
(2) व्यवसायीकरण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति, समूह व समुदाय के जीविकोपार्जन से सम्बन्धित होता है।
(3) व्यवसायीकरण के द्वारा व्यक्ति में व्यवसाय विशेष सम्बन्धी दक्षताओं एवं कौशलों का विकास किया जा सकता है।
(4) व्यवसायीकरण आर्थिक विकास एवं औद्योगिक विकास के मार्ग को प्रशस्त करता है।
व्यवसायीकरण व शिक्षा का सम्बन्ध
शिक्षा तथा व्यवसायीकरण के मध्य सार्थक एवं युक्तिसंगत सम्बन्धों का विश्लेषण निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है-
(1) व्यवसायीकरण के विभिन्न क्षेत्रों का विकास शिक्षा के द्वारा ही किया जाता है।
(2) व्यक्ति अपने भावी जीवन में उचित व्यवसाय का चयन करता है जो शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। इसके द्वारा उसमें विवेकपूर्ण निर्णयन क्षमता विकसित होती है।
(3) व्यवसायीकरण की प्रक्रिया का विकास समाज तथा देश की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है अर्थात् जिस देश की शिक्षा व्यवस्था जितने उच्च स्तर की होगी उस देश में व्यवसायीकरण भी विविधताओं से परिपूर्ण होगा।
(4) आज के आधुनिक समय में व्यवसायीकरण से सम्बन्धित शिक्षा ही जनकल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। अतः क्रिया-प्रधान तथा रोजगारोन्मुख शिक्षा आज के युग की माँग है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा एवं व्यवसायीकरण दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है तथा दोनों आपस में अन्तर्सम्बन्धित है।
व्यवसायीकरण एवं समाज के मध्य अन्तर्सम्बन्ध (Interrelationship between Vocationalisation and Society)
व्यवसायीकरण तथा समाज में घनिष्ठ सम्बन्धों को कुछ बिन्दुओं के द्वारा आसानी से समझ सकते हैं-
(1) व्यवसायीकरण समाज की भौतिक उन्नति का आधार है क्योंकि व्यावसायिक उन्नति ही समाज की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है।
(2) व्यवसायीकरण की मुख्य आवश्यकता समाज के विकास व आर्थिक उत्थान के लिए होती है।
(3) व्यवसायीकरण के द्वारा ही समाज का समग्र विकास सम्भव है। यह समाज के सभी अंगों का विकास करता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान समाज में व्यवसायीकरण का स्थान सर्वोपरि है। यह समकालीन व समसामयिक समाज के विकास के लिए न केवल एक मंच तैयार करने में सहायक सिद्ध होता है बल्कि गति को भी तीव्र से तीव्रतर एवं तीव्रतर से तीव्रतम करने में सहायक है।
बचपन छीनता बालश्रम (CHILD LABOUR EXTORTING CHILDHOOD)
बालश्रम का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Child Labour)
बालश्रम से अभिप्राय ऐसे कार्य से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा से छोटा होता है।
सामान्य शब्दों में वे बच्चे जो 14 वर्ष से कम आयु के हैं, उनसे उनका बचपन, खेलकूद तथा शिक्षा का अधिकार छीन कर शोषण करके, उन्हें काम में लगाकर शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से प्रताड़ित कर कम पारिश्रमिक में काम कराकर, उनके बचपन को श्रमिक रूप में बदलना ही बालश्रम है।
बालश्रम निषेध अधिनियम के अनुसार, "चौदह वर्ष की आयु से कम उम्र के बालकों द्वारा किसी खतरनाक उद्योग, खान, कारखाने आदि में किया जाने वाला कार्य (जोखिम पूर्ण) 'बालश्रम कहलाता है।"
बाल-श्रम उन्मूलन के उपाय (Corrective Measures for Child Labour)
बाल-श्रम उन्मूलन के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) बाल-श्रम को समाप्त करने के लिए निःशुल्क शिक्षा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । यह बाल-श्रम को समाप्त करने की कुंजी सिद्ध हो सकती है।
(2) फैक्ट्री मालिक, दुकानदार, एवं अन्य उद्योगों में बच्चों को रोजगार पर नहीं रखा जाना चाहिए। इसके प्रति समाज के शिक्षित एवं जागरूक किए जाने के साथ बाल श्रम से होने वाले प्रभावों को भी बताना चाहिए।
(3) कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों की माँग उत्पन्न कर बाल-श्रमिकों में कमी लाई जा सकती है।
(4) अवैध बाल-श्रम के प्रति लोगो में जागरूकता लाने का प्रयास करना चाहिए बाल-श्रम के कारण एवं प्रभावों से लोगों को एवं बच्चों को भली-भांति परिचित कराना चाहिए।
बाल-श्रमिकों की समस्याएँ (Problems of Child Labour)
बाल-श्रमिकों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
(1) शैक्षिक समस्या (Educational Problem)- जिस आयु में बच्चों को सही शिक्षा मिलना चाहिए एवं खेल-कूद कर उनके मस्तिष्क का विकास होना चाहिए उस उम्र में उनसे काम कराने से उनका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इससे ये बच्चे शिक्षा से दूर हो जाते हैं।
(2) आर्थिक समस्या (Economic बाल-श्रमिकों के पारिश्रमिक Problem)- का अधिकांश भाग दलालों, मालिकों एवं अभिभावकों के पास चला जाता है। मालिक स्वयं पूरा पारिश्रमिक भी नहीं प्रदान करता. इन्हें विभिन्न कमियों के नाम पर वह उसमें से भी पारिश्रमिक काट लेता है। इसके उपरान्त जो बचता है यह अभिभावक द्वारा ले लिया जाता है।
(3) भावनात्मक व मानसिक शोषण (Emotional and Mental Exploitation)- जिस गरीबी और मजबूरी के चलते कोई बच्चा श्रम करता है, उसे भावनात्मक एवं मानसिक शोषण का शिकार होना पड़ता है। इन्हें मालिकों द्वारा बात-बात पर गाली देने, पीटने तथा शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
(4) स्वाभिमान की कमी (Lack of Self-Esteem)- बाल श्रमिक विभिन्न व्यक्तियों द्वारा इतने प्रताड़ित एवं शोषित किए जाते हैं कि उनमें स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं रह जाती है। बचपन से ही दुर्व्यवहार, उत्पीड़न आदि का सामना करते-करते उन्हें इनकी आदत पड़ जाती है इससे इनके स्वाभिमान का विकास नहीं हो पाता है।
जनसंख्या शिक्षा (POPULATION EDUCATION)
जनसंख्या शिक्षा (Population Education)
जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक कार्यक्रम है जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की जनसंख्या की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन का उद्देश्य छात्रों में इस स्थिति के प्रति विवेकपूर्ण तथा उत्तरदायित्व पूर्ण दृष्टिकोणों एवं व्यवहारों को विकसित करना है।
जनसंख्या शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता (Importance and Need of Population Education)
जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्न तथ्यों से स्पष्ट कर सकते हैं-
(1) जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे वनों का कटाव भी अधिक होता जा रहा है। प्राकृतिक संसाधन कम होते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इसलिए जनसंख्या नियन्त्रित करने के लिए जनसंख्या शिक्षा देना बहुत आवश्यक है।
(2) यदि सामाजिक जीवन को बनाना है जनसंख्या शिक्षा देना अति आवश्यक है।
(3) यदि देश की आर्थिक स्थिति में सुधार करना तो जनसंख्या शिक्षा दिया जाना अति आवश्यक है।
(4) हमारे देश में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता ग्रामीण विद्यालयों में अधिक है भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है और ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा जन्म दर ज्यादा है।
जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य
(1) छात्रों को जनसंख्या वृद्धि के कारणों का ज्ञान कराना।
(2) छात्रों को छोटा परिवार सुखी परिवार की भूमिका से अवगत कराना ।
(3) छात्रों को बड़े परिवारों के सम्बन्ध में आने वाली कठिनाइयों का ज्ञान कराना।
(4) छात्रों को जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ज्ञान प्रदान करना ।
जनसंख्या शिक्षा की समस्याएं
जनसंख्या शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ
(1) जनसंख्या शिक्षा के प्रत्यय से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ ।
(2) छोटे परिवार के विषय में उपयुक्त अभिवृत्तियों की कमी,
(3) उपयुक्त शिक्षकों की कमी,
(4) जनसंख्या शिक्षा की अनुपयुक्त पाठ्यवस्तु एवं
(5) जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी शोध कार्यों की कमी।
जातिवाद, अलगाववाद एवं साम्प्रदायिकता (CASTEISM, SEPARATISM AND COMMUNALISM)
जातिवाद की परिभाषा(Definition of Casteism)
जातिवाद (Casteism) जातिवाद एक जाति के सदस्यों की वह संकुचित भावना है जो समाज एवं राष्ट्र के हित की अवहेलना करते हुए अपने ही जाति के अन्य सदस्यों के हितों को बढ़ावा देने, उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने तथा उनकी प्रगति को प्रेरित करती है। मानव भावनाओं का यह संकुचित रूप ही जातिवाद है। यह एक ऐसी भावना है जो अपनी ही जाति के सदस्यों के उत्थान एकता एवं सामाजिक स्थिति को उठाने में सहायता करती है।
काका कालेलकर के शब्दों में, जातिवाद अन्ध और परिमित समूह भक्ति है, जो न्याय के सामान्य, सामाजिक मानदण्डों के औचित्य नैतिकता तथा सार्वभौमिक भ्रातृत्व की उपेक्षा करती है।"
के. एम. पन्निकर के अनुसार, राजनीतिक भाषा में उपजाति के प्रति निष्ठा का भाव ही जातिवाद है।"
अलगाववाद (Separatism)
अलगाववाद एक अलग क्षेत्र की आकांक्षा है जो पृथक होने के लिए राज्य से अलग एक नया राज्य या स्वायत्त क्षेत्र बनाने के उद्देश्य से होती है। अलगाववादी एक ऐसा व्यक्ति है जो एक समूह, समाज, संस्कृति या धर्म को तोड़ने का समर्थन करता है। भारत जैसे सम्प्रभुता सम्पन्न देश में विभिन्न जाति, धर्म और भाषा-भाषी लोगों का निवास है। इन सभी लोगों को एक मत होकर इसकी एकता एवं रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है। इस प्रकार की भावना ही अलगाववाद कहलाती है।
अलगाववाद के अन्तर्गत एक विशिष्ट उपराष्ट्र या अधोराष्ट्र क्षेत्र के प्रति जागरूकता एवं भक्ति पाई जाती है। इसमें व्यक्ति पक्षपातपूर्ण भावनाओं से ग्रसित होकर एक क्षेत्र विशेष को स्थानीयतावाद, प्रान्तवाद, क्षेत्रवाद एवं पृथक्करणवाद में परिणित कर देता है । अलगाववाद के उत्तरदायी कारक अलगाववाद के कारकों में राजनीतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक कारकों के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रोत्साहन युवा असंतोष, आर्थिक विषमता व निर्धनता, क्षेत्रवाद की भावना जातिवाद, साम्प्रदायिक शक्तियों का अभ्युदय, भाषा की समस्या प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है।
अलगाववाद को रोकने के उपाय (Preventive Measures of Separatism)
(1) नैतिक शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण को प्रोत्साहित करके अलगाववाद को रोका जा सकता है।
(2) शिक्षित समाज का निर्माण कर लोगों को अलगाववाद के दुष्परिणामों से परिचित कराकर इसे रोका जा सकता है।
(3) युवा वर्ग की संकुचित मनोवृत्तियों को दूर कर उनमें राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहित करके अलगाववाद को रोका जा सकता है।
(4) प्राथमिक स्तर से ही बच्चों को नैतिकता, राष्ट्रीयता एवं एकता की शिक्षा प्रदान करके अलगाववाद को रोका जा सकता है।
(5) सरकार द्वारा सभी नीतियों एवं योजनाओं को सम्पूर्ण राष्ट्र पर एक समान लागू करके अलगाववाद को रोका जा सकता है।
साम्प्रदायिकता (Communalism)
साम्प्रदायिकता उस राजनीति को कहा जाता है जो धार्मिक समुदायों के बीच विरोध और झगड़े पैदा करती है ऐसी राजनीति धार्मिक पहचान को बुनियादी और अटल मानती है। साम्प्रदायिकता धार्मिक अस्मिता का एक विशेष तरह का राजनीतिकरण है ।
विशेष तरह की राजनीतिकरण है जा धार्मिक समुदायों में झगड़े पैदा करवाने की कोशिश करता है। किसी भी बहुधार्मिक देश में धार्मिक राष्ट्रवाद जैसे शब्दों का अर्थ भी साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित ही हो सकता है। साम्प्रदायिकता का अभिप्राय उस भावना से है जो धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, प्रजाति आदि की भिन्नता के कारण एक समूह को दूसरे समूह से अलग रहने या विरोध करने की प्रेरणा देता है।
रेण्डम हाउस डिक्शनरी के अनुसार, "सम्प्रदायवाद अपने ही जातीय समूह के प्रति न कि समग्र समाज के प्रति निष्ठा की भावना है।"
अतः सम्प्रदायवाद अथवा साम्प्रदायिकता एक ऐसी भावना है जो व्यक्ति के मन में अपनी जाति, धर्म या सम्प्रदाय के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करती है। इसमें व्यक्ति अपनी जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय को दूसरे से श्रेष्ठ समझता है।
साम्प्रदायिकता के (Reasons of Communalism) कारण
साम्प्रदायिकता के कारण निम्नलिखित हैं-
(1) फूट डालो और राज्य करो की नीति (Divide and Rule Policy)-फूट डालो और राज्य करो की नीति अंग्रेजों की देन है। इसका प्रयोग कर उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया तथा देश का बंटवारा किया।.
टर सॉल्वड सीरीज़ (वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारम्भिक शिक्षा) यू.पी. डी.एल.एड.
वर्तमान में इसका उपयोग सत्ता प्राप्त करने, वोट की राजनीति इत्यादि में किया जाता है। इसके कारण समाज में साम्प्रदायिकता की वृद्धि होती है।
(2) जाति व्यवस्था (Caste System) – जाति व्यवस्था के कारण भारत में साम्प्रदायिकता अधिक व्याप्त है। भारत में विभिन्न लोग जातियों के आधार पर विभाजित हैं। इस प्रकार एक जाति की भावना दूसरी अन्य जाति से टकराव का कारण बनती है।
(3) धार्मिक कारण (Religious Reasons ) - भारत में विभिन्न धर्मों के लोग निवास करते हैं। उनकी अपनी भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज तथा खान पान होते हैं। वे अपने को तथा अपनी क्रियाओं को दूसरे से श्रेष्ठ मानते हैं। इसके कारण आपस में साम्प्रदायिकता की भावना बढ़ती है।
(4) असामाजिक तत्त्व (Antisocial Elements) - बहुत से असामाजिक तत्त्व अपने लाभ के लिए साम्प्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देते हैं। इसमें बहुत से बेगुनाह लोग मारे जाते हैं। इस प्रकार साम्प्रदायिकता और अधिक बढ़ जाती है।