शिक्षा आयोग अथवा कोठारी आयोग (1964-1966) [EDUCATION COMMISSION OR KOTHARI COMMISSION)
शिक्षा आयोग के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र (Objectives & Work Criteria of Education Commission)
आयोग के कार्यक्षेत्र के विषय में सरकार ने स्पष्ट किया कि आयोग शिक्षा के सभी स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा का अध्ययन करके उनके विकास की सम्भावनाओं पर अपने सुझाव दे । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए आयोग को पूरे देश की तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कर उसमें सुधार हेतु सुझाव देने थे।
आयोग का कार्यक्षेत्र एवं उद्देश्य इस प्रकार थे-
(1) तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का अध्ययन कर उसके
प्रति व्याप्त असन्तोष के कारणों का पता लगाकर उसमें "सुधार के लिए सुझाव देना ।
(2) सम्पूर्ण देश के लिए समान शिक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में सुझाव देना। यह शिक्षा प्रणाली भारतीय शिक्षा की वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करे तथा भविष्य के निर्माण में भी सहायक हो।
(3) शिक्षा की व्यवस्था और प्रशासन सम्बन्धी नीति सुनिश्चित करने के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना ।
(4) प्रत्येक स्तर की शिक्षा के प्रसार एवं उसमें गुणात्मक सुधार के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना ।
आयोग का प्रतिवेदन (Report of the Commission)
आयोग ने इस कार्य को पूर्ण करने के लिए कार्यकारी दल बनाए। इन दलों ने पूरे देश के सभी राज्यों के स्कूलों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का भ्रमण कर शिक्षा से जुड़े व्यक्तियों का साक्षात्कार लिया। इसके अलावा आयोग ने शिक्षा से जुड़े प्रश्नों की प्रश्नावली तैयार की तथा इन प्रश्नों के प्राप्त उत्तरों का भी विश्लेषण किया। साक्षात्कार, भ्रमण तथा प्राप्त उत्तरों का सांख्यिकीय विवरण तैयार कर विचार-विमर्श किया गया। इसके बाद आयोग ने 29 जून, 1966 को अपना प्रतिवेदन भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षामन्त्री श्री एम.सी. छागला के समक्ष प्रस्तुत किया। यह प्रतिवेदन 692 पृष्ठों का है तथा तीन भागों में विभाजित हैं और इसका नाम हैं- "शिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास" । (Education and National Development)
प्रथम भागों में 6 अध्याय हैं जिनमें सभी स्तरों की शिक्षा व्यवस्था के पुनः निर्माण का विवेचन किया गया है इसमें राष्ट्रीय लक्ष्य एवं शिक्षा का स्वरूप, शिक्षकों की समृद्धि, प्रवेश सम्बन्धी नियम, शिक्षा के समान अवसरों की चर्चा की गई है। दूसरे भाग में 11 अध्याय हैं जिनमें उच्च शिक्षा, विद्यालयी शिक्षा, कृषि शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। तीसरे भाग में 2 अध्याय हैं जिनमें शिक्षा के प्रशासन एवं आयोजन तथा अर्थव्यवस्था के स्वरूपों पर चर्चा की गई है। इन सभी अध्यायों में सभी विषयों की समस्याएँ तथा उनके समाधान को प्रस्तुत किया जा रहा है।
आयोग के गुण (Merits of Commission)
आयोग के गुण निम्नलिखित हैं-'
(1) शिक्षा की उचित व्यवस्था-आयोग ने 6 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए 20 वर्षों के अन्दर निःशुल्क एवं प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने, माध्यमिक स्तर पर 70: बच्चों के लिए शिक्षा पूर्ण इकाई के रूप में और शेष 30: बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करने का सुझाव दिया।
(2) उपयुक्त उद्देश्य - आयोग ने शिक्षा के जो उद्देश्य निश्चित किए थे तब भी महत्त्वपूर्ण थे और आज भी शिक्षा के क्षेत्र में ये उद्देश्य अति उपयोगी सिद्ध हुए। किसी भी देश की शिक्षा के विकास के लिए ये उद्देश्य बहुत आवश्यक है।
(3) प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी उपयुक्त सुझाव - आयोग ने सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा के विषय में सुझाव दिए जैसे- अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, प्राथमिक शिक्षा के विस्तार, अपव्यय व अवरोधन के सम्बन्ध में दिए गए सुझाव अति उपयुक्त थे।
(4) माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी समयानुकूल सुझाव - आयोग ने 70% छात्रों के लिए माध्यमिक शिक्षा को पूर्ण शिक्षा बनाने का सुझाव दिया। भारत के संसाधनों को देखते हुए यह सुझाव अनुकूल था। आयोग ने माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श की उचित व्यवस्था करने पर बल दिया।
आयोग के दोष (Demerits of Commission)
आयोग के दोष निम्नलिखित हैं-
(1) अस्पष्ट शिक्षा संरचना आयोग ने शिक्षा संरचना के विषय में जो सुझाव - दिए, वे अस्पष्ट और उलझे हुए थे। यह पता ही नहीं चल पाया कि आयोग भारत में कौन सी शिक्षा संरचना बनाना चाहता था।
(2) प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन सम्बन्धी सुझाव - अनुपयुक्त प्राथमिक स्तर पर आयोग ने बच्चों के लिए शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देने के लिए कहा जो कि भारत की प्राथमिक शिक्षा के अनुकूल नहीं था।
(3) माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में द्विपक्षीय सुझाव-पहले सुझाव में माध्यमिक स्तर पर 70% छात्रों के लिए शिक्षा पूर्ण करने के लिए कहा गया एवं दूसरे सुझाव में 50% छात्रों के लिए व्यावसायिक वर्ग में प्रवेश देने के लिए कहा। ये दोनों सुझाव एक साथ कैसे सम्भव थे।
(4) शिक्षा का माध्यम अस्पष्ट आयोग के कुछ सुझाव - अस्पष्ट थे। एक ओर तो कहा कि भविष्य में उच्च शिक्षा का माध्यम भी क्षेत्रीय भाषाएं होंगी तो दूसरी ओर कहा कि विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जाएगी। माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं को पढ़ने के लिए कहा, निम्न माध्यमिक स्तर पर मातृभाषा के साथ संघीय भाषा तथा विदेशी भाषा का अध्ययन करने के लिए कहा। इन सुझावों के द्वारा आयोग भारत में कौन सी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहता था, यह समझ से परे था ।
आयोग की सिफारिशों का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Commission's Recommendations on Indian Education)
आयोग की सिफारिशों के आधार पर भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण कर उसे 24 जुलाई, 1988 को घोषित कर दिया गया। पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू करने के प्रयास शुरू कर दिए गए। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं अन्ततः हम कह सकते हैं कि भारतीय शिक्षा आयोग ने भारत की शिक्षा के समस्त पहलुओं का गहनता से अध्ययन किया और उसके सम्बन्ध में ठोस सुझाव दिए। इन सुझावों के आधार पर सरकार ने 1986 में स्वतन्त्र भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की तथा शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना गया। देश के विकास पर सर्वाधिक बल दिया गया जिसके परिणामस्वरूप भारत में औद्योगीकरण को नई दिशा मिली जिससे देश का आर्थिक विकास हुआ और लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठा । वर्तमान में भी हमारे देश में तकनीकी शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता है जिससे देश औद्योगीकरण की तरफ तेजी से बढ़ रहा है और निरन्तर देश का आर्थिक विकास हो रहा है। इसलिए भारतीय शिक्षा आयोग का शिक्षा जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
प्रशिक्षण परिषद ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार की। कुछ प्रान्तों में इस आधार पर 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण कर उसे लागू कर दिया गया। कुछ प्रान्तों में +2 स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की भी व्यवस्था की गई परन्तु इनमें सफलता नहीं मिल सकी। स्नातक कोर्स 3 वर्ष का कर दिया गया। उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने तथा प्रसार के लिए ठोस कदम उठाए गए। शिक्षक शिक्षा में सुधार किया गया तथा प्रौढ़ शिक्षा को व्यापक बनाया गया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 का निर्माण भी इसी आयोग के सुझावों के आधार पर किया गया।
यशपाल समिति 1992-93 (YASHPAL COMMITTEE)
यशपाल समिति की रिपोर्ट के चरण (Stages of the Yashpal Committee Report)
यशपाल समिति ने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) तथा शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के पाठ्यक्रम तथा पुस्तकों का अध्ययन किया साथ ही तत्कालीन स्कूली पाठ्यक्रम एवं प्रधानाचार्यों, शिक्षकों, शिक्षा बोर्डों के अध्यक्ष एवं शिक्षाविदों से विचार विमर्श करके 15 जुलाई 1993 को कमेटी का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। जिसका शीर्षक शिक्षा बिना बोझ (Education Without Burden) रखा।
यशपाल समिति की रिपोर्ट मे पांच चरण है। समिति की रिपोर्ट निम्नलिखित प्रकार से है-
(1) रिपोर्ट के प्रथम चरण में समिति के गठन के उद्देश्य तथा कार्यविधि की प्रस्तावना बताई गई।
(2) रिपोर्ट के दूसरे चरण में पाठ्यचर्या के भार की समस्या पर प्रकाश डाला गया। जिसमें शैक्षिक बोझ एवं शिक्षा के स्तर के अर्थो को स्पष्ट किया गया।
(3) रिपोर्ट के तीसरे चरण में समस्या के कारणों का उल्लेख किया गया।
(4) रिपोर्ट के चौथे चरण में समिति के सुझावों तथा सिफारिशों की व्याख्या की गई।
(5) रिपोर्ट के पांचवे एवं अन्तिम चरण में समिति के गठन का आदेश पत्र दिया गया।
यशपाल समिति के मुख्य सुझाव (Main suggestions of Yashpal Committee)
(1) पाठ्यपुस्तकों को विद्यालय की सम्पत्ति समझा जाए। अतः बालकों को व्यक्तिगत रूप से इन पुस्तकों को खरीदने एवं प्रतिदिन घर ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए ।
(2) गृहकार्य के लिए एवं विद्यालय में पाठ्यपुस्तकों व अभ्यास पुस्तिकाओं के प्रयोग के लिए अलग से समय सारिणी बनाई जाए।
(3) प्राथमिक कक्षाओं में बालकों को कोई गृहकार्य न दिया जाए।
(4) पाठ्यपुस्तकों में बालकों के अनुभव एवं सामान्य जनजीवन प्रतिबिम्बित होना चाहिए। कठिन तथा बोझिल भाषा का प्रयोग न किया जाए।
(5) प्राथमिक कक्षाओं में विज्ञान पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों में 'प्रयोग' करने को अधिक स्थान दिया जाए एवं अनावश्यक एवं महत्वहीन सामग्री को हटा दिया जाए।
यशपाल समिति का मूल्यांकन (Evaluation of Yashpal Committee)
इस समिति के किसी भी सदस्य को किसी भी स्तर पर पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था। जिस कारण से समिति न तो समस्या के स्वरूप को समझ सकी और न ही उसके सही रूप में समझा सकी तथा उनके समाधान देने में भी असमर्थ रही।
रिपोर्ट में स्पष्टता एवं तार्किक क्रम का अभाव रहा जिससे समिति के प्रतिवेदन निरर्थक सिद्ध हुए चूंकि समस्या के स्वरूप को लिखते हुए समाधानों पर भी प्रकाश डाला गया साथ ही कहीं समस्या की चर्चा तो कहीं समाधान के उपाय सुझाए गए जिस कारण रिपोर्ट का क्रम अव्यवस्थित रहा एवं इसका कोई सार नहीं प्रस्तुत हो पाया।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 (NATIONAL CURRICULUM FRAMEWORK, NCF- 2005)
मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की पहल पर पो. यशपाल की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय संचालन समिति तथा इक्कीस राष्ट्रीय फोकस समूहों का गठन किया गया। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (N.C.E.R.T) की बैठक 6 दिन (14 जुलाई 2004 से 19 जुलाई 2004) तक चली। NCERT ने विद्यालयी शिक्षा से सम्बन्धित विविध मुद्दों पर सामाजिक विचार-विमर्श की एक प्रक्रिया प्रारम्भ की। विचारों एवं अपेक्षाओं के गहन मन्धन में बड़ी संख्या में प्रतिष्ठित विद्वानो, शिक्षकों, अभिभावकों, गैर-सरकारी संस्थानों के प्रतिनिधियों आदि में भाग लिया।
इस सभा में यह निर्णय लिया गया कि 21वीं शताब्दी के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या तैयार की जाए। वैसे भी प्रत्येक 5 वर्ष के उपरान्त पाठ्यचर्या का पुनर्निरीक्षण एवं आवश्यक संशोधन करने की बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कही गई थी एवं 2000 में निर्मित पाठ्यचर्या के पाँच वर्ष 2005 में पूर्ण होने वाले थे। इसी बीच वर्ष 2005 से सूचना संचार प्रौद्योगिकी का समाज पर प्रभाव बहुत तेजी के साथ पड़ा एवं कम्प्यूटर की आधुनिक दुनिया 2005 तैयार की गई एवं इसे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, दिसम्बर 2005 में प्रकाशित किया गया। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 नामक दस्तावेज में 5 अध्याय हैं। इस रूपरेखा में कक्षा 1 से कक्षा 12 तक की पाठ्यचर्या प्रस्तुत की गई है। इन स्तरों पर किस प्रकार और कैसे पढ़ना सिखाया जाए इस विषय में पूरी रूपरेखा तैयार की गई है। प्रथम अध्याय- परिप्रेक्ष्य द्वितीय अध्याय- सीखना और ज्ञान तृतीय अध्याय-पाठ्यचर्या के क्षेत्र स्कूल की अवस्थाएँ और आंकलन चतुर्थ अध्याय-विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण पंचम अध्याय-व्यवस्थागत सुधार
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के उद्देश्य (Objectives of National Curriculum Framework)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के उद्देश्य इस प्रकार है-
(1) विभिन्न प्राकर के विषयों (अनुशासना) में सम्बन्धं स्थापित करना।
(2) शिक्षा तथा ज्ञान को विद्यालय से वाह्य जीवन से जोड़ना एवं बालकों को सामान्य ज्ञान जिसे वह सामान्य क्षेत्रों में प्रयोग कर सके।
(3) बालकों के लिए सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास करना ।
(4) विविध उपागमों को शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया के विविध पहलुओं में बढाकर यह बताना कि यह प्रक्रिया सृजनात्मकता की गुणवत्ता को बढ़ाती है।
(5) परीक्षा प्रणाली को अधिक लचीला तथा एकीकृत बनाना।
(6) बालक अपने स्व- ज्ञान के निर्माण में समर्थ हो इसके लिए सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय पृष्ठभूमि को मजबूत बनाना।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा की आवश्यकता (Need of National Curriculum Framework)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा की आवश्यकता निम्न कारणों से हुई-
(1) 21वीं सदी की माँग - वर्तमान में शिक्षा की निवेश के रूप में गिनती की जाती है। शिक्षा ही आज कमजोर समूहों के सशक्तीकरण में सहायक है। आज शिक्षा वैश्विक सभ्यता की नींव के रूप में उभर कर आ रही है। इस परिवर्तित समय में शिक्षा की भूमिका बहुत बढ़ गई है। ऐसे में एक उचित ढंग से व्यवस्थित पाठ्यचर्या की नितान्त आवश्यकता थी।
(2) भारतीय समाज में विविधता- हमारे भारतवर्ष में विभिन्न प्रकार के क्षेत्र, भाषाएँ, धर्म, आर्थिक स्थितियाँ एवं सामाजिक स्तर देखने को मिलते हैं जो हमारे समाज की समता के ऊपर प्रश्न उठाती है। ऐसे में शिक्षा के द्वारा ही इन सभी प्रश्नों को हल किया जा सकता है इसीलिए शिक्षा में उचित पाठ्यचर्या की आवश्यकता है।
(3) परिवर्तन के लिए आवश्यक पाठ्यचर्या में परिवर्तन आवश्यक है। विभिन्न समूहों ने भी विचार-विमर्श के दौरान शिक्षा की सापेक्षता के विषय में ध्यान केन्द्रित किया है। बालकों के माता-पिता, समाज, शिक्षकों तथा स्वयं बालकों को यह एहसास होने लगा कि शिक्षा की व्यवस्था सापेक्षित नहीं है। अतः इसमें परिवर्तन की आवश्यकता है।
(4) संवैधानिक बाध्यता- भारत में समता या समानता पर आधारित लोकतन्त्रीय व्यवस्था है। यह राजनैतिक दृष्टिकोण से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक व्यवस्था पर अधिक कार्यभार डाल देता है एवं आज के समय में जब शिक्षा रोड की हड्डी की भूमिका निभा रही है तो शिक्षा में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दाँचा एक आवश्यक कदम है।
(5) एन.सी.ई.आर.टी. का आवधिक व्यायाम-राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के सुझावों के अनुसार NCERT द्वारा पाठ्यचर्या को नियमित रूप से दोहराते रहना चाहिए क्योंकि शिक्षा के आयामों एवं शिक्षा के मूल्यों में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहा है। शिक्षा के विभिन्न पहलुओं में उदीयमान होते चलन को अपनाने के लिए पाठ्यचर्या को दोहराते रहना चाहिए।
(6) शिक्षा का आधुनिकीकरण-वर्तमान आधुनिकीकण के युग में शिक्षा के आधुनिकीकरण की भी नितान्त आवश्यकता है एवं इसके लिए शिक्षा की पाठ्यचर्या का ढाँचा अनुकूल होना आवश्यक है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रुपरेखा के प्रमुख बिन्दु (Main Points of National Curriculum Framework)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या, शिक्षा के बोझ से मुक्त करने एवं बालकों में सृजनात्मक विकास पर ध्यान केन्द्रित करती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में पाठ्यचर्या के कुछ मुख्य बिन्दुओं पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है जिनका विवरण इस प्रकार है-
(1) व्यवस्थागत सुधार एवं परीक्षा प्रणाली।
(2) बालकों का विकास एवं सीखना।
(3) विविध विषयों के विषय में विचार, भाषा, सामाजिक विज्ञान, गणित, कला शिक्षण, विज्ञान, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा आदि।
(4) पाठ्यचर्या का क्षेत्र एवं मूल्यांकन |
(5) गुणवत्ता सुधार एवं परीक्षा प्रणाली ।
(6) पाठ्यचर्या नवीनीकरण के लिए शिक्षक शिक्षा।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार आदर्श शिक्षक के गुण (Qualities of an Ideal Teacher as per National Curriculum Framework 2005)
(1) शिक्षक ग्रहणशील और निरंतर सीखने वाला हो ।
(2) सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संदर्भों में विद्यार्थियों को समझ सके ।
(3) ज्ञान को पाठ्यपुस्तकों के बाह्य ज्ञान के रूप में न देखकर व्यक्ति और समाज के साझा संदर्भ में देखें।
(4) शिक्षक उत्पादक कार्य के महत्त्व को समझने वाला हो तथा कक्षा के बाहर और अन्दर व्यावहारिक अनुभव देने के लिए कार्य को शिक्षण का माध्यम बनाए अर्थात् 'करके सीखना वाली शिक्षण विधि का प्रयोग करने वाला हो ।
(5) शिक्षक समाज के प्रति अपना दायित्व समझे तथा श्रेष्ठ विश्व के लिए कार्य करे।
(6) शिक्षक छात्रों के साथ मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने वाला हो।
(7) शिक्षक वैश्वीकरण, सार्वजनीकरण, निजीकरण के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं राजनीतिक संदर्भों के कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्तों की विवेचना (Explanation of the main guiding principles of National Curriculum Framework 2005)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के मार्गदर्शक सिद्धान्त इस प्रकार है-
(1) ज्ञान को विद्यालय के बाहरी जीवन से जोड़ना ।
(2) रटन्त प्रणाली से शिक्षा को मुक्त करना ।
(3) परीक्षा प्रणाली को अधिक लचीला बनाकर उसे कक्षागत गतिविधियों से जोड़ना ।
(4) पाठ्यचर्या के बोझ को "शिक्षा बिना बोझ के के आधार पर
कम करना ।
(5) पाठ्यचर्या सुधार के माध्यम से सुसंगत व्यवस्थागत परिवर्तन लाना।
(6) गुणवत्तापूर्ण शिक्षा समस्त बालकों हेतु सुनिश्चित करना ।
(7) कला, संगीत, शिल्प आदि के द्वारा संस्कृति का संरक्षण एवं विकास करना ।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 की प्रमुख समस्याएं (Major problems of National Curriculum Framework 2005)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या सन् 2005 की संरचना एवं क्रियान्वयन सम्बन्धी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित है-
(1) भाषाओं की समस्या - राष्ट्रीय पाठ्यचया की रूपरेखा 2005 के समय भाषा की समस्या उत्पन्न हुई कि शिक्षण का माध्यम कौन सी भाषा हो? किस भाषा को पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान प्रदान किया जाए?
(2) राजनैतिक समस्याएँ- राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का स्वरूप निर्मित करने में अनेक राजनैतिक संगठनों एवं धार्मिक संगठनों की प्रतिक्रियाओं का ध्यान रखना होता है जिससे पाठ्यक्रम का परिमार्जित एवं पारदर्शी स्वरूप विकसित नहीं हो पाता।
(3) परम्पराओं की समस्या-समाज एवं राष्ट्र की सामाजिक: एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ पाठ्यक्रम निर्माण में प्रमुख बाधा उत्पन्न करती हैं।
(4) वैश्वीकरण का प्रभाव- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में स्पष्ट रूप से वैश्वीकरण का प्रभाव देखा जा सकता है जो कि भारतीय परिस्थिति में उपयुक्त नहीं माना जा सकता है। अतः वैश्वीकरण का नकारात्मक प्रभाव भी पाठ्यचर्या संरचना की एक प्रमुख समस्या है।
(5) कार्यान्वयन एवं निर्णय की समस्या- पाठ्यचर्या में प्रस्तुत सुझावों के कार्यान्वयन की समस्या भी प्रमुख समस्या है। यदि पाठ्यचर्या का कार्यान्वयन उचित रूप से नहीं होता है तो निर्धारित उपयों की प्राप्ति भी सम्भव नहीं होती है।
(6) संसाधनों का अभाव- भारत एक विशाल देश है इसलिए संसाधनों का अभाव पाया जाना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पर भी संसाधनों के अभाव में महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श नहीं हो पाया। इसलिए संसाधनों का अभाव पाठ्यक्रम संरचना की प्रमुख बाधा है।
उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई है। जिन्होंने पाठ्यचर्या को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया है। ये समस्याएँ परिस्थितिजन्य एवं सामाजिक तथा स्थानीय प्रभावों से सम्बन्धित होती है। भारतीय समाज में इन समस्याओं का प्रभाव प्रमुख रूप से देखा जाता है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 की समस्याओं का समाधान (Solving the problems of National Curriculum Framework 2005)
राष्ट्रीय पाठ्यच्या की रूपरेखा का क्रम सन् 1988 से अनवरत रूप से प्रारम्भ है जिसमें पाठ्यचर्या की रूपरेखा सन 2000 तथा राष्ट्रीय संरचना 2005 प्रस्तुत किए जा रहे है। पाठ्यचर्या की रूपरेखा सम्बन्धी समस्याओं का समाधान निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-
(1) समाज के व्यक्तियों के प्रति निष्ठा की भावना जाग्रत की जानी चाहिए। किसी भी पद एवं गौरव की इच्छा को सामान्य रूप से प्रदर्शित करने की योग्यता विकसित करनी चाहिए।
(2) शिक्षकों में आत्मविश्वास की भावना का विकास करते हुए कर्तव्य पालन के दृष्टिकोण को विकसित करना चाहिए।
(3) भाषा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए किसी एक सूत्रीय व्यवस्था को निरूपित किया जाना चाहिए जिससे किसी को कोई आपत्ति न हो।
(4) सरकार को शिक्षा के क्षेत्र में अधिक मात्रा में धन उपलब्ध कराना चाहिए क्योंकि शिक्षा द्वारा ही राष्ट्र एवं समाज का उत्थान होता है।
(5) भारतीय समाज में विकसित दृष्टिकोण का समावेश करते हुए आधुनिक विचारधाराओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करना चाहिए।
(6) धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर मानव कल्याण एवं मानव विकास की भावना का समावेश जन सामान्य में करना चाहिए।
(7) शिक्षा को राजनैतिक दोषों से दूर रखने के लिए राजनीतिज्ञों में जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए जिससे वे शिक्षा के विकास पर ही ध्यान दें।
(8) पाठ्यचर्या निर्माताओं को उपलब्ध संसाधनों में ही श्रेष्ठतम पाठ्यचर्या का स्वरूप निर्मित करना चाहिए। इसके लिए. पाठ्यचर्या निर्माण समिति में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को स्थान प्रदान करना चाहिए।
उपर्युक्त समस्याओं के समाधान से राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा को नवीन आधार प्राप्त होगा तथा पाठ्यचर्या निर्माण में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न नहीं होगी। पाठ्यचर्या निर्माण का कार्य महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। यह कार्य बाधारहित एवं स्वस्थ वातावरण में सम्पन्न होना चाहिए।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना शिक्षक शिक्षा 2009 (NATIONAL CURRICULUM FRAMEWORK TEACHER EDUCATION)
राष्ट्रीय पाठ्यवर्ग संरचना शिक्षक शिक्षा के प्रत्यक्ष उद्देश्यों का उल्लेख (National Curriculum Structure Mentioning the Direct Objectives of Teacher Education)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना शिक्षक शिक्षा के प्रत्यक्ष उददेश्यों का सम्बन्ध शिक्षक के उन प्रत्यक्ष व्यवहारों से होता है जिनके द्वारा छात्रों के कार्य एवं व्यवहार में पूर्णता सुधार किया जा सके। ये सभी उद्देश्य शिक्षक से प्रत्यक्ष सम्बन्धित होते हैं. इसलिए इन्हें शिक्षा के प्रत्यक्ष उद्देश्य कहा जाता है।
इन प्रत्यक्ष उद्देश्यों को निम्न रूपों से समझाया जा सकता है--
(1) शिक्षक शिक्षा हेतु पाठ्यचर्या का निर्माण करना।
(2) शिक्षक शिक्षा के लिए उचित समयावधि का निर्धारण करना।
(3) शिक्षकों के व्यावसायिक वृद्धि की उपलब्धता।
(4) शिक्षक की योग्यता एवं गुणों का विकास करना ।
(5) शिक्षक शिक्षा का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण करना।
(6) शिक्षक का विकास एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में करना ।
(7) शिक्षक का विकास एक मनोवैज्ञानिक के रूप में करना।
(8) शिक्षक का विकास एक विचारक के रूप में करना।
(9) शिक्षक का विकास एक ज्ञान स्रोत के रूप में करना।
(10) शिक्षक का विकास एक निर्देशनकर्ता एवं परामर्शदाता के रूप में करना।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना शिक्षक शिक्षक्षा 2009 के अप्रत्यक्ष उद्देश्यों का उल्लेख (Mention of indirect objectives of National Curriculum Framework Teacher Education 2009)
अप्रत्यक्ष उददेश्य छात्रों की छिपी हुई प्रतिभाओं को निखारना एवं उसे उसकी शक्तियों से अभिभूत कराकर सफल बनाना है। शिक्षा के अप्रत्यक्ष उददेश्यों के अभाव में छात्र को अपने विकास का उचित अवसर नहीं मिल पाता है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष उद्देश्य शिक्षक द्वारा किए जाने वाले कार्यों के परिणाम से सम्बन्धित होता है।
अप्रत्यक्ष उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) छात्रों के सर्वांगीण विकास का उद्देश्य |
(2) शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया की प्रभावशीलता का उद्देश्य ।
(3) सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति का उद्देश्य ।
(4) बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्देश्य ।
(5) पोषणीय विकास का उद्देश्य ।
(6) उचित मूल्यांकन का उद्देश्य ।
(7) तर्क एवं चिन्तन के विकास का उद्देश्य
(8) प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का उद्देश्य ।
(9) अधिगम वातावरण के सृजन का उद्देश्य ।
(10) पर्यावरणीय मूल्यों के विकास का उद्देश्य ।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना शिक्षक शिक्षा 2009 की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of National Curriculum Framework Teacher Education 2009)
शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार एवं सुधार के लिए शिक्षकों के दायित्वों में वृद्धि की गयी। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना शिक्षक शिक्षा, 2009 की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्न हैं-
(1) शिक्षा की सार्वभौमिकता के लिए।
(2) निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के लिए ।
(3) परिवर्तित समाज के लिए ।
(4) शैक्षिक असमानता को कम करने के लिए।
(5) नवीन चुनौतियों के समाधान के लिए।
(6) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रभावशीलता के लिए।
(7) छात्रों की अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास के लिए ।
(8) जीवन कौशलों के विकास के लिए ।
(9) समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए।
(10) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिए।