भारतीय संविधान - INDIAN CONSTITUTION IN HINDI

हमारा संविधान (OUR CONSTITUTION) 

संविधान की अवधारणा एवं परिभाषाएँ (Concept and Definitions of Constitution) - संविधान एक ऐसा विधिक दस्तावेज होता है जिसके अनुसार किसी भी देश की शासन व्यवस्था चलती है। दूसरे शब्दों में, संविधान उन आधारभूत नियमों और कानूनों का संग्रह है जिनके आधार पर किसी देश की शासन व्यवस्था चलाई जाती है।

प्रत्येक देश अपने संविधान को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखता है। यह एक मौलिक कानून है जिसके द्वारा सरकार के प्रमुख अंगों एवं कार्यक्षेत्र को सुनिश्चित किया जाता है। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी निश्चित करता है।

भारतीय संविधान - INDIAN CONSTITUTION IN HINDI

इस प्रकार संविधान देश के सभी कानूनों से श्रेष्ठ है। देश के सभी कानूनों का आधार संविधान ही होता है। साधारण शब्दों में, संविधान का अर्थ उस दस्तावेज से है जिसके अन्तर्गत विधिक उपबन्ध निहित रहते हैं। संविधान के अन्तर्गत वे नियम भी होते हैं- जिनके द्वारा सरकार के समस्त अंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं।

संविधान के निर्माण में लगा समय

संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 माह, और 18 दिन का समय लगा तथा संविधान सभा द्वारा इसे 26 नवम्बर सन् 1949 ई. को पारित किया गया।

मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार' राज्य एवं सरकार की निरकुंशता पर रोक लगाते हैं तथा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर बल देते हैं-

संविधान का गठन (Formation of Constitution) - संविधान के गठन की प्रक्रिया को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) अस्थायी अध्यक्ष- संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर, 1946 को हुआ। संविधान सभा के वरिष्ठ सदस्य श्री सच्चिदानन्द सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष चुना गया।

(2) स्थायी अध्यक्ष-11 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना ।

(3) उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution)- 13 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष एक उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस उद्देश्य प्रस्ताव का भारतीय संविधान के गठन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इस उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को स्वीकार किया।

संविधान सभा की समितियाँ(Committees of the Constituent Assembly) - कार्यवाही का संचालन एवं नियन्त्रण करने के उद्देश्य से कार्य विभाजन करके छः समितियों का गठन किया गया। इसका वर्णन निम्न प्रकार से है- 

(1) संघीय शक्ति समिति ।

(2) प्रान्तीय संविधान समिति ।

(3) संघीय संविधान समिति ।

(4) संघ एवं राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों की समिति ।

(5) अल्पसंख्यकों एवं मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित सलाहकार समिति ।

(6) प्रारूप समिति ।

नोट- इन समितियों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रारूप समिति थी।

संविधान निर्माण के लिए प्रारूप समिति का गठन

संविधान निर्माण के लिए संविधान द्वारा विभिन्न समितियों का गठन किया गया था। इन समितियों से प्राप्त रिपोटों को क्रमबद्ध करने के उद्देश्य से अगस्त 1948 को प्रारूप समिति का गठन किया गया। इस समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे।

अध्यक्ष सहित इसके सात सदस्य थे जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(1) डॉ. भीमराव अम्बेडकर (अध्यक्ष) 

(2) गोपाल स्वामी आयंगर 

3) अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर 

(4) के. एम. मुंशी

(5) बी.एल. मित्तल

(6) सैय्यद मुहम्मद सादुल्ला

भारतीय संविधान की विशेषताएँ

(1) लोकतन्त्रात्मक गणराज्य (Democratic Republic)- संविधान द्वारा भारत में एक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है। लोकतन्त्रात्मक शब्द का अभिप्राय यह है कि सरकार की शक्ति का स्रोत जनता में निहित है क्योंकि लोकतन्त्रात्मक सरकार जनता की, जनता के लिए जनता द्वारा स्थापित होती है।

सरकार की स्थापना जनता के द्वारा प्रदत्त वयस्क मताधिकार द्वारा की जाती है। गणराज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जहाँ शासनाध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है।

(2) संप्रभुता (Sovereignty )- भारतीय संविधान लोकप्रिय संप्रभुता पर आधारित संविधान है अर्थात् यह शक्ति भारतीय जनता को ही प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि, हम भारत के लोग दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

(3) धर्मनिरपेक्षता (Secularism ) - संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा यह है कि पंथ, जाति या सम्प्रदाय के आधार पर किसी भी पंथानुयायी से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा।

किसी भी धर्म को राजधर्म नहीं माना जाएगा, न ही उसे कोई संरक्षण अथवा प्राथमिकता दी जाएगी। 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़कर इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति स्पष्ट कर दी गई है।

(4) अस्पृश्यता का अन्त (End of Untouchability) - राष्ट्रीय एकता में बाधक अस्पृश्यता का भारतीय संविधान के अनुच्छेद-17 द्वारा अन्त कर दिया गया है।


नागरिकता (CITIZENSHIP)

नागरिकता का अर्थ (Meaning of Citizenship) - नागरिकता मनुष्य की उस स्थिति को कहते हैं जिसमे मनुष्य को नागरिक स्तर की प्राप्ति होती है। हमारे देश में दो तरह के लोग है, नागरिक एवं विदेशी नागरिकता के द्वारा नागरिक का राज्य प्रदत्त कर्तव्यों एवं अधिकारों का बोध होता है। इन्हो नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते है। दूसरी आए विदेशी किसी अन्य राज्य के नागरिक होते है। इसलिए उन्हें सभी नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार नहीं प्राप्त होते हैं। मे दो तरह के होते हैं- विदेशी मित्र एवं विदेशी शत्रु विदेशी मित्र से तात्पर्य है, जिनके साथ भारत के सकारात्मक सम्बन्ध हाँ यहाँ विदेशी शत्रु से तात्पर्य है जिनके साथ भारत का चल रहा हो उन्हें कम अधिकार प्राप्त होते है और गिरफ्तारी और नजरबंदी के विरुद्ध सुरक्षित नहीं होते हैं।

गैटिल के अनुसार, नागरिकता किसी व्यक्ति की उस स्थिति को कहा जाता है जिसके आधार पर वह अपने राज्य के राजनैतिक एवं सामाजिक अधिकारों का उपयोग कर सके और कर्तव्यों का पालन करने के लिए तत्पर रहे।

जन्म के आधार पर नागरिकता 

जन्म के आधार पर नागरिकता निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होती है-

(1) 26 जनवरी 1950 के बाद एवं 1 जुलाई 1947 से पहले भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति जन्म के आधार पर भारत का नागरिक है।

(2) 1 जुलाई 1947 को या उसके बाद भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक है यदि उसके जन्म के समय कोई एक अभिभावक भारत का नागरिक रहा हो।

(3) 3 दिसम्बर 2004 के पश्चात भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाता है यदि उसके दोनों अभिभावक भारत के नागरिक हो या एक अभिभावक भारतीय हो एवं दूसरा उसके जन्म के समय गैर-कानूनी आप्रवासी न हो तो वह नागरिक भारतीय या विदेशी हो सकता है।

विशेष- भारत में पदस्थ विदेशी राजनायिक एवं शत्रु देश के बच्चों को भारत की नागरिकता का अधिग्रहण करने का अधिकार प्राप्त नहीं है।

नागरिकता की समाप्ति (Eradication of Citizenship) - नागरिकता की समाप्ति को नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 9 में उल्लिखित किया गया है। नागरिकता समाप्ति के कारण निम्नलिखित है-

(1) स्वैच्छिक त्याग यदि भारत का कोई नागरिक की पंजीकरण देशीयकरण या अन्य किसी प्रकार से किसी दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है तब ऐसी स्थिति में वह भारत का नागरिक नहीं रहेंगा।

(2) नागरिकता का परित्याग करना-यदि कोई वयस्क व्यक्ति भारतीय नागरिकता के परित्याग की घोषणा करता है तब वह घोषणा विशेष अधिकारी द्वारा पंजीकृत कर ली जाती है एवं उसके उपरान्त वह व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं रहता है। इसके साथ-साथ उस व्यक्ति के नाबलिग बच्चों की भारतीय नागरिकता भी समाप्त हो जाती है।

(3) वंचित करने द्वारा भारत की संघ सरकार निम्नलिखित कारणों के आधार पर नागरिकता का अपहरण कर सकती है- 

(i) यदि किसी व्यक्ति ने धोखा देकर या गलत बयान देकर अथवा आवश्यक बातों को छिपाकर नागरिकता प्राप्त की है तो सत्य जानकारी प्राप्त होने के बाद उसकी नागरिकता समाप्त की जा सकती है।

(ii) यदि नागरिक संविधान के प्रति अनादर व्यक्त करता है तो उसकी नागरिकता बर्खास्त करने का प्रावधान है। 

(iii) यदि किसी व्यक्ति ने भारत के प्रति देशद्रोह किया है। या फिर युद्ध के समय शत्रु की सहायता की है तो उसकी नागरिकता छीनी जा सकती है।


नागरिकता का महत्त्व एवं विशेषाधिकार (Importance and Privileges of Citizenship) - संविधान में केवल नागरिको को ही मूल अधिकार व कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं जो कि निम्न हैं-

(1) अनुच्छेद 15 के अनुसार, राज्य नागरिकों के बीच केवल मूल वंश, जाति या लिंग एवं जन्मस्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

(2) अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य द्वारा प्रदत्त नौकरियों के विषय में अवसर की समानता का अधिकार या लोकनियोजन के विषय में समता का अधिकार।

(3) अनुच्छेद 19 के अनुसार, मूल स्वतंत्रताएँ जैसे- भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सम्मेलन, संघ, संचरण, निवास व व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता।

(4) अनुच्छेद 29 एवं 30 के आधार पर सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकार।

(5) केन्द्रीय विधान मण्डल एवं राज्य विधानमण्डल के प्रतिनिधियों के चुनाव का मताधिकार एवं इन संस्थाओं का सदस्य बनने का अधिकार।

(6) सार्वजनिक पदों जैसे-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, राज्यों के राज्यपाल, महान्यायवादी एवं महाधिवक्ता की योग्यता रखने का अधिकार।

(7) संसद एवं राज्य विधान मण्डल की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार।

संविधान में निहित मौलिक अधिकार एवं कर्त्तव्य (FUNDAMENTAL RIGHTS AND DUTIES IN CONSTITUTION)


 सम्पति का अधिकार 

इस अधिकार के तहत प्रत्येक व्यक्ति को निजी सम्पति का अधिकार है। अनुच्छेद 31 के अनुसार, व्यक्ति को सम्पात सम्बन्धी निम्न अधिकार दिए गए हैं-

(1) कोई व्यक्ति सम्पत्ति पर कानूनी अधिकार तभी ले सकता है जब यह सार्वजनिक रूप से अनिवार्य हो या उसका मुआवजा दे।

(2) विधि के विरुद्ध किसी व्यक्ति को सम्पत्ति नहीं छीनी सकती है।

44 वें संविधान संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से समाप्त कर दिया गया। वर्तमान में यह साधारण कानूनी अधिकार के रूप में है।


सूचना के अधिकार अधिनियम के उद्देश्य (Objectives of RTI Act) - सूचना के अधिकार अधिनियम के उद्देश्य निम्नलिखित है-

(1) नागरिकों को अधिकार सम्पन्न बनाना ।

(2) सरकार की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना।
(3) भ्रष्टाचार को कम करना। 
(4) लोकतन्त्र को सही अर्थों में लोगों के हित में कार्य करने के लिए सक्षम बनाना ।


सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नागरिकों के अधिकार (Rights of Citizens Under the RTI Act) - 
सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नागरिकों के अधिकार निम्नलिखित हैं-

(1) नागरिकों को किसी लोक प्राधिकारी से ऐसी सूचना माँगने का अधिकार है जो उस लोक प्राधिकारी के पास उपलब है या उसके नियंत्रण में उपलब्ध है।

इस अधिकार में लोक प्राधिकारी के पास या उसके नियन्त्रण में उपलब्ध कृतियाँ दस्तावेजों तथा रिकाडों का नोट उदाहरण या प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना, सामग्री का प्रमाणित लेना सम्मिलित है।

(2) सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लोक प्राधिकारी द्वारा सूचना सृजित करने या सूचना की व्याख्या करने या आवेदक द्वारा उठाई गई समस्याओं का समाधान करना या काल्पनिक प्रश्नों का उत्तर देना अपेक्षित नहीं है। अधिनियम के अन्तर्गत केवल ऐसी सूचना प्राप्त की जा सकती है जो लोक प्राधिकारी के पास पहले से मौजूद है।

(3) अधिनियम नागरिकों को संसद सदस्यों और राज्य विधान मण्डल के सदस्यों के बराबर सूचना का अधिकार प्रदान करता है।

अधिनियम के अनुसार ऐसी सूचना जिसे संसद अथवा राज्य विधान मण्डल को देने से इंकार नहीं किया जा सकता, उसे किसी भी व्यक्ति को देने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।


नागरिकों के मूल कर्तव्य (Basic Duties of Citizens) - भारतीय संविधान ने जहाँ एक ओर अपने नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किए हैं, वहीं दूसरी ओर अपने नागरिकों से राष्ट्र की उन्नति में सहायक मूल कर्त्तव्यों के निर्वहन की अपेक्षा भी की है। ये मौलिक कर्तव्य इस प्रकार है-

(1) भारतीय संविधान का पालन करें और संविधान के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करें। अनुच्छेद-51(A)

(2) स्वतन्त्रता के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये और उनका पालन करें। अनुच्छेद-51(B)

(3) भारत की सम्प्रभुता, एकता तथा अखण्डता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण बनाए रखें। अनुच्छेद 51(C)

(4) देश की रक्षा करें एवं आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे। अनुच्छेद 51 (D)

(5) अपनी समन्धित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा के महत्त्व को समझे एवं उसकी रक्षा करें। अनुच्छेद-51(F)

(6) प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी व वन्य जीव आते हैं, उनकी रक्षा करें एवं उनका संवर्धन करें और प्राणीमात्र के अनुच्छेद-61(G) प्रति दया का भाव रखें।

(7) वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर सुधार की भावना का विकास करें। अनुच्छेद-51 (H)

(8) सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति न पहुँचाएं एवं हिंसा से दूर रहे।

(9) व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयत्नों से सभी क्षेत्रों में उन्नति करने का निरन्तर प्रयास करें जिससे राष्ट्र उपलब्धियों की नई ऊँचाईयों को छू सके।

(10) माता-पिता व अभिभावक के रूप में 8-14 वर्ष के बच्चों अथवा आश्रितों को शिक्षा के अवसर प्रदान करें।

राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DIRECTIVE PRINCIPLES OF STATE)


राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों की विशेषताएँ (Characteristics of Directive Principles of State) - नीति निदेशक तत्त्वों की विशेषताएँ निम्नलिखित है-

(1) कानून बनाने में मार्गदर्शक के रूप में (To Give Guidance in Framing Laws )-केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, कानून बनाते समय उन्हें नीति निर्देशक तत्त्वों को ध्यान में रखना होता है।

(2) कानूनी रूप से मान्य न होना (Judicially Illegible)-इन नीतियों को कानूनी मान्यता नहीं दी गई है अर्थात् ये किसी भी प्रकार का कानूनी अधिकार नागरिकों को प्रदान नहीं करते हैं। इन्हें किसी न्यायालय द्वारा सरकारों पर थोपा नहीं जा सकता।

(3) आधारभूत सिद्धान्त (Fundamental Principle)-नीति निदेशक तत्त्व संविधान में मूलभूत स्थान रखते हैं। भले ही इन्हें न्यायालय द्वारा लागू न किया जा सकता हो ।

राज्य के नीति निदेशक तत्वों का महत्त्व (Significance of the Directive Principles of State)


राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) सरकार का मार्ग दर्शक नीति-निर्देशक तत्व सरकार के लिए मार्ग दर्शक का कार्य करते है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के परिणामस्वरूप अलग-अलग राजनैतिक दलों को शासन करने का अवसर प्राप्त होता है। ऐसे में बहुमता प्राप्त दल को नीति-निदेशक तत्त्वों को ध्यान में रखकर नीतियों का निर्माण करना होता है।

(2) कल्याणकारी राज्य की स्थापना-नीति निर्देशक सिद्धांतों के निर्माण के पीछे कल्याणकारी राज्य की स्थापना है। नीलि निदेशक तत्त्वों के समस्त प्रावधानों में समाज कल्याण से सम्बन्धित प्रावधान है।

(3) मूल अधिकारों के पूरक नीति  - निदेशक तत्त्व मूल अधिकारों के पूरक होते हैं क्योंकि मूल अधिकारों का उपयोग ठीक प्रकार से तभी किया जा सकता है जब सरकार नीति-निदेशक तत्त्वों के माध्यम से उचित परिवेश एवं नीतियों का निर्मााग करें।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति में योगदान नीति-निदेशक तत्त्वों के माध्यम से सरकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति प्रयासों में योगदान देती है। इसके साथ ही सरकार लोगों को भी इसमे अपना समर्थन एवं योगदान देने के लिए प्रोत्साहित करती है।

उपभोक्ता (CONSUMER)

प्रत्येक वह व्यक्ति उपभोक्ता होता है जो कोई वस्तु खरीदता है या किसी सेवा का किराए पर प्रयोग करता है जिसके लिए वह धन देता है या देने का वादा करता है।"


उपभोक्ता के दायित्व (Responsibilities or Duties of a Consumer)- उपभोक्ता के दायित्व निम्न रूप से है-

(1) उपभोक्ताओं को सामान खरीदते समय उपलब्ध किस्मों, कीमतों तथा गुणवत्ता का भली प्रकार मूल्यांकन करना चाहिए।

(2) उपभोक्ताओं को अधिकाधिक वस्तुओं का क्रय विश्वसनीय स्थान से करना चाहिए जिससे वह स्वार्थी व्यापारियों से बच सके।

(3) सामान खरीदते समय उपभोक्ता जिस उत्पाद को खरीदे उसे उस विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

(4) उपभोक्ता को वस्तुओं का संचय नहीं करना चाहिए क्योंकि संचय से कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता है।

(5) उपभोक्ता का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि उसके द्वारा क्रय की गई वस्तु सुरक्षित होने के साथ-साथ निम्न गुणवत्ता की न हो। उपभोक्ता को 151 हॉलमार्क एगमार्क ((Agmark) जैसे- चिह्नों वाली वस्तुओं को वरीयता देनी चाहिए

 उपभोक्ता  के अधिकार (Consumer Right) 

(1) सुरक्षा का अधिकार- इसका अर्थ है वस्तुओं और सेवाओं है- के विपणन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करना जो जीवन और सम्पत्ति के लिए क्षतिपूर्ण होती है। क्रय की गई वस्तुएँ तथा सेवाएँ न केवल तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति करें बल्कि इनसे दीर्घावधि हितों की पूर्ति भी होनी चाहिए।

(2) सूचना पाने का अधिकार- इसका अर्थ है वस्तुओं की मात्रा, गुणवत्ता, शक्ति, शुद्धता, स्तर और मूल्य के विषय में जानकारी पाने का अधिकार है जिससे अनुचित व्यापार प्रथाओं के विरुद्ध उपभोक्ता को सुरक्षा दी जा सके।सके।

(3) चयन का अधिकार- इसका अर्थ है आश्वस्त होने का अधिकार, जहाँ भी प्रतिस्पर्धी कीमत पर वस्तुओं तथा सेवाओं की किस्मों तक पहुँचना सम्भव हो तथा जहाँ किसी का एकाधिकार हो। इसका अर्थ है संतोषजनक गुणवत्ता और सेवा का आश्वासन, उचित मूल्य पर पाना। इसमें मूलभूत वस्तु तथा सेवाओं का अधिकार भी सम्मिलित है।

राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (राज्य आयोग) State Consumer Disputes Redressal Commission (State Commission)

इस योग के न्यायिक क्षेत्र मूलतः तीन प्रकार है- वासादिक अलीया निरीक्षणीय वास्तविक न्यायिक क्षेत्र के अन्ततोग उन शिकायत की सुनवाई कर सकता है जिसमे वस्तु वा सेवाओं का मूल्य एवं क्षतिपूर्ति की राशि बीस लाख रुपये से लेकर एक करोड़ की राशि तक की ही हो। अगोलीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत राज्य आयोग जिला फोरम के आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवाई कर सकता है। निरीक्षणीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आयोग सन सभी निर्णयों की रिपोर्ट को मंगा सकती है जो उपभोक्ता विवाद के आपले में राज्य के जिला फोरम द्वारा तैयार की गयी हो या उसके पास लती हो।



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