1. संघ-संघ बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे । संघ में प्रविष्ट होने पर मनुष्य श्रमण बन जाता था । श्रमण के अतिरिक्त संघों में और किसी को शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती थी। संघ में प्रवेश लेने के विशेष नियम थे । संघ में प्रविष्ट होने की 'प्रबज्जा' कहते थे । इसका अर्थ है— बाहर जाना । अर्थात् भावी भिक्षु परिवार से विलग होकर बाहर आकर बौद्ध संघ में मिल रहा है। उसकी आयु 8 से 12 वर्ष के बीच होती थी । 20 वर्ष की आयु में 'उपसम्पदा' संस्कार होता था । इसके फलस्वरूप भिक्षु संघ का पूर्णरूपेण सदस्य बन जाता था ।
2. छात्र की दिनचर्या -आश्रम-व्यवस्था के अनुरूप ही मठों में भी गुरु की सेवा करना शिक्षा का प्रमुख अंग माना जाता था । भिक्षु छात्र गुरु की पूरी तरह से सेवा करते, भोजन बनाते और गुरु के साथ भिक्षाटन हेतु जाते थे । शिष्य गुरु के हाथ-पैर और वस्त्र इत्यादि धोने का भी कार्य करते थे। गुरु के निवास की सफाई एवं रसोई की व्यवस्था तथा सभी सामान्य कार्य शिष्यों को करने पड़ते थे । शिष्य दूसरे शिष्य से सेवा नहीं करा सकता था और न उसकी आज्ञा दूसरे शिष्यों को मान्य ही होती थी ।
3. गुरु और शिष्य सम्बन्ध-गुरु एवं शिष्यों के मध्य बड़े घनिष्ठ एवं मधुर सम्बन्ध हुआ करते थे । दोनों का जीवन सादा तथा निकट का होता था। गुरु शिष्यों की शैक्षिक, शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अनुसार उनका विकास करता था । इस युग में गुरु शिष्य का मठ से निष्कासन कर सकता था । जब गुरु यह पाता कि कोई शिष्य पर्याप्त मात्रा में उसे सम्मान नहीं दे रहा है या अपने अध्ययन के प्रति जागरूक नहीं है तो वह उसका निष्कासन कर दिया करता था। अगर कोई गुरु किन्हीं कारणों से संघ से बाहर हो जाता था तो उसके शिष्यों का भी संघ से बाहर जो जाना पड़ता था ।
4. मठों की व्यवस्था —बौद्ध विहार तथा मठ संघों का निर्माण करते थे । मठों गुरु एवं शिष्य साथ-साथ रहते थे । सामान्यतया एक गुरु अपने पास एक शिष्य रखता था । किन्तु कुछ विद्वान गुरु एक से अधिक शिष्य भी रख सकते थे। ये सभी लोग सामान्यतया पेड़ों के नीचे रहते थे। किन्तु प्रतिकूल मौसमों में से लोग विहार तथा मठों में रहते थे । विहार तथा मठों के विशाल भवनों का निर्माण राजाओं तथा बनियों द्वारा होता था । इनमें हजारों छात्रों के रहने की व्यवस्था होती थी ।
5. अध्ययन-पद्धति — इस समय मौखिक शिक्षण की व्यवस्था थी। छात्र सुनकर, रटकर, एक-दूसरे को सुनाकर विषयवस्तु को कष्ठस्थ किया करते थे । वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तर विधियाँ भी प्रचलित थीं । एकान्त, मौन चिन्तन तथा मनन द्वारा उच्चस्तरीय ज्ञान प्राप्त किया जाता था । बौद्ध मठों में बड़े जन समुदाय के सम्मुख व्याख्यान देने की भी व्यवस्था थी । शास्त्रार्थ प्रथा भी प्रचलित थी । इस युग में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए प्रचारक स्थान-स्थान घूमकर अपने धर्म का प्रचार किया करते थे।
6. स्त्री - शिक्षा — प्रारम्भिक अवस्था में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में सम्मिलित होने की अनुमति प्रदान नहीं की। बाद में स्त्रियाँ संघों में प्रवष्टि होने लगीं । किन्तु स्त्रियों पर संघ में बड़े कड़े नियम लागू होते थे। भिक्षुणी का स्थान भिक्षु से नीचे समझा जाता था । प्रारम्भिक अवस्था में अनेक भिक्षुणियों ने पर्याप्त यश प्राप्त किया जिनमें सुप्तका तथा पटचारा का नाम विख्यात है । किन्तु धीरे-धीरे ये भिक्षुणियाँ ही मठों में पापाचार तथा भ्रष्टाचार का मुख्य कारण बनीं।
7. जनसाधारण की शिक्षा- बौद्धकाल में जनसाधारण की भी शिक्षा देने की व्यवस्था थी । इस शिक्षा का रूप सामान्यतया धार्मिक हुआ करता था। कुछ मठों के गुरु गृहस्थों में जाकर शिक्षा प्रदान किया करते थे। पूरी शिक्षा निःशुल्क हुआ करती थी, किन्तु शिक्षा प्रारम्भ करने से पहले मुद्रा के रूप में या शारीरिक श्रम के रूप में गुरु को कुछ देना पड़ता था । मठों में छोटे-बड़े सबको एक जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता था ।
8. भौतिक शिक्षा- बौद्ध काल में भौतिक शिक्षा प्रदान करने की भी व्यवस्था थी और इन मठों में सिलाई, सैनिक शिक्षा, औद्योगिक शिक्षा, भवन-निर्माण या आयुर्वेद, ज्योतिष तथा अन्य भौतिक विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसी युग में सर्पदंश चिकित्सा के लिए काफी अध्ययन किये गये थे। इसी प्रकार वस्त्र उद्योग भी काफी उन्नति पर था । राजकुमारों को राजनीतिशास्त्र तथा युद्ध विद्या के सम्बन्ध में व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता था ।
9. छात्रों का चयन—समाज के सभी व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, परन्तु निम्नलिखित प्रकार के व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था—
(i) दास या ऋणी,
(ii) नपुंसक,
(iii) राज्य की सेवा में लगा व्यक्ति,
(iv) डाकू,
(v) कारावास से भागा व्यक्ति,
(vi) अंग-भंग का व्यक्ति,
(vii) शरीर में किसी प्रकार की विकृति वाला व्यक्ति,
(viii) राज्य से दण्डित व्यक्ति,
(ix) माता-पिता से आज्ञा न प्राप्त किया हुआ व्यक्ति,
(x) क्षय, कोढ़ अथवा किसी छूत के रोग का रोगी ।
10. शिक्षा आरम्भ करने की आयु—उस समय शिक्षा प्रारम्भ करने की न्यूनतम आयु 8 वर्ष थी । परन्तु इस आयु का बन्धन केवल उन बालकों के लिए था जो संघ में प्रवेश करने का निश्चय कर लेते थे। बालक संघ के किसी भी भिक्षु को अपने शिक्षक के रूप में चयन कर लेता था ।
11. अध्ययन की अवधि—प्रबज्जा, संस्कार की आयु 8 वर्ष थी । इस संस्कार की अध्ययन की अवधि 12 वर्ष थी। 'उपसम्पदा' की अवधि 10 वर्ष थी । उपसम्पदा संस्कार बौद्ध संघ से कम-से-कम 10 वर्ष भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था ।
12. अध्ययन के विषय—-उस समय अध्ययन के विषयों का स्वरूप पूर्ण धार्मिक न था । यह पूर्ण से लौकिक भी न था । शिक्षा में बौद्ध-दर्शन की प्रधानता थी। उस समय अध्ययन के विषय अग्रलिखित थे-
(i) संस्कृत साहित्य,
(ii) न्यायशास्त्र,
(iii) चिकित्साशास्त्र,
(iv) दर्शन,
(v) तर्क- शास्त्र, और
(vi) धर्म ।