वैदिक काल की शिक्षा की विशेषताएँ प्रशंसनीय रही हैं। आधुनिक समय में इनकी प्रशंसा की जाती है। इसका एकमात्र कारण यह है कि वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है । परन्तु प्रश्न यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा की विशेषताओं को वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में कहाँ तक उपयोग किया जा सकता है । इस प्रश्न का उत्तर देने से प्रथम हम यह देखें कि आधुनिक भारत की क्या परिस्थितियाँ हैं । इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर हम यह बता सकते कि प्राचीन भारत की शिक्षा की विशेषताओं का वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कहाँ तक प्रयोग किया जा सकता है।
भारत की वर्तमान परिस्थितियाँ निम्न प्रकार हैं-
1. धर्म के प्रभाव में कमी—आधुनिक भारत में धर्म के प्रभाव में कमी देखी जा सकती है। वर्तमान भारत की परिस्थितियाँ भारत की प्राचीन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न हैं । भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है । इसी कारण भारतीय शिक्षा में धर्म को स्थान नहीं दिया जा सकता है। भारत में अनेक धर्म हैं। विद्यालयों में विभिन्न धर्मों की शिक्षा देना सम्भव नहीं हैं। प्रत्येक विद्यालय में अनेक धर्मों के छात्र अध्ययन करते हैं । अतः प्राचीन भारत की शिक्षा की इस विशेषता को आधुनिक समय की शिक्षा प्रणाली में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता । सरकार ने धार्मिक कटुता तथा संघर्ष "रोकने के लिए शिक्षा-संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दिये जाने पर रोक लगा दी है।
2. चरित्र निर्माण की उपेक्षा—आधुनिक समय में भारतीयों का चारित्रिक पतन हो रहा है । प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नैतिकता नाम की कोई वस्तु नहीं रह गयी है । अतः शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना होना चाहिए। प्राचीन शिक्षा के इस उद्देश्य को एक प्रभावशाली राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को विकसित करने में अवश्य अपनाया जा सकता है। आधुनिक समय में छात्रों का नैतिक पतन हो रहा है । अत: 'चरित्र निर्माण की शिक्षा' पर अत्यधिक बल दिया जाना चाहिए । शिक्षा के इस उद्देश्य को यदि अवहेलना की जाती है तो शिक्षा प्रणाली उपयोगी सिद्ध न होगी, परन्तु शिक्षा के इस उद्देश्य की प्राप्ति तभी सम्भव है जब राजनीतिक तथा समाज के पथ- प्रदर्शक अपना दृष्टिकोण बदलें । जब तक वे अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं करेंगे, शिक्षा के इस उद्देश्य की प्राप्ति न हो सकेगी।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षा के चरित्र निर्माण के उद्देश्य का प्रयोग किया जा सकता है ।
3. सामाजिक कुशलता की ओर उदासीनता - आधुनिक समय में छात्रों की सामाजिक कुशलता में वृद्धि करना आवश्यक है । प्राचीन समय में भी छात्रों के मानसिक विकास के साथ उनमें सामाजिक कुशलता उत्पन्न की जाती थी । शिक्षा जीवन में उपयोगी थी । प्राचीन भारत के शिक्षा के इस उद्देश्य को आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में स्थान दिया जा सकता है। यदि हम इस उद्देश्य को अपनाते हैं तो पढ़ाई छोड़कर बैठने वाले छात्रों की संख्या कम हो सकती है । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए अनेक उपाय काम में लाये जा सकते हैं। इससे विद्यालयों का संगठन अच्छा हो सकेगा। छात्रों की संख्या में वृद्धि हो सकेगी। इस प्रकार सैद्धान्तिक शिक्षा को व्यावहारिक बनाया जा सकता है।
4. नागरिकों द्वारा अपने कर्त्तव्यों की अवहेलना - आधुनिक समय में नागरिक अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन रहते हैं । वे परोक्ष रूप से भी अपने कर्त्तव्यों की अवहेलना करते हैं । प्राचीन समय में इस ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। प्राचीन समय की शिक्षा की इस विशेषता का आधुनिक समय में भी अपनाया जा सकता है। भारत एक प्रजातन्त्रवादी देश है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी उद्देश्य जो छात्रों को उपयोगी नागरिक बना सके । अतः प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य को राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को विकसित करने में अवश्य अपनाया जाना चाहिए। शिक्षा के इस उद्देश्य की प्राप्ति शिक्षा में आमूल परिवर्तन करके ही प्राप्त की जा सकती है। सरकार और शिक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों का यह कर्त्तव्य है कि वे शिक्षा को भारतीय परिस्थितियों और परम्पराओं के अनुकूल बनाने में अपना सहयोग दें ।
5. व्यक्तित्व के विकास की ओर कम ध्यान दिया जाना-आज के छात्र केवल किताबी घोड़े बनकर रह गये हैं। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना रह गया है । हमारे विद्यालयों के शिक्षक भी इस बात का प्रयास करते हैं कि उनके छात्र अधिक से-अधिक संख्या में उत्तीर्ण हों। एक अध्यापक की सफलता इस बात से आँकी जाती है कि उसके छात्रों का उर्त्तीण प्रतिशत क्या है ? इस प्रकार बालकों के व्यक्तित्व का विकास गौण रह जाता है। शिक्षक छात्रों के व्यक्तित्व के विकास पर ध्यान नहीं दे पाता है । शिक्षा का उद्देश्य बालकों के व्यक्तित्व का विकास करना है । प्राचीन भारत की शिक्षा की एक विशेषता यह भी थी कि उस समय बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था । अध्यापक इस ओर विशेष प्रयास करता था । प्राचीन भारत की शिक्षा की इस विशेषता को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में प्रयोग किया जा सकता है। छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में ही राष्ट्रीय विकास सम्भव है । प्राचीन भारत की शिक्षा के इस उद्देश्य को तभी अपनाया जा सकता है. जबकि समाज का वातावरण सुन्दर हो अर्थात् समाज से भ्रष्टाचार, चोरबाजारी और भाई-भतीजावाद समाप्त किया जाए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत की शिक्षा की कुछ विशेषताओं को आधुनिक समय में भी सफलतापूर्वक प्रयोग में लाया जा सकता है ।