भारत में प्रथम साम्राज्य की स्थापना-FOUNDATION OF FIRST EMPIRE IN INDIA IN HINDI

 मौर्य वंश (MAURYAN DYNASTY)

मौर्य इतिहास के स्रोत (Sources of Mauryan History)

मौर्य इतिहास के सन्दर्भ में दो प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं- 

(1) साहित्यिक स्रोत (Literary Sources) - साहित्यिक स्रोतों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, मेगस्थनीज की इण्डिका, बौद्ध साहित्य और पुराण हैं।

 (i) अर्थशास्त्र - यह पुस्तक कौटिल्य (चाणक्य) के द्वारा राजनीति और शासन के बारे में लिखी गई है। यह पुस्तक मौर्य काल के आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के बारे में बताती है। कौटिल्य, चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री था।

भारत में प्रथम साम्राज्य की स्थापना-FOUNDATION OF FIRST EMPIRE IN INDIA IN HINDI

(ii) मुद्रा राक्षस- यह पुस्तक गुप्तकाल में विशाखदत्त द्वारा लिखी गई। यह पुस्तक बताती है कि किस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की मदद से नन्द वंश को पराजित किया था।

(iii) बौद्ध साहित्य-बौद्ध साहित्य जैसे जातक मौर्य काल के सामाजिक-आर्थिक स्थिति के विषय में बताते हैं जबकि बौद्ध वृतांत महावंश और दीपवंश अशोक के बौद्ध धर्म को श्रीलंका तक फैलाने की भूमिका के बारे में बताते हैं । तिब्बत बौद्ध लेख भी अशोक के बौद्ध धर्म का प्रचार करने के योगदान के बारे में जानकारी देते हैं।

(iv) पुराण- पुराण मौर्य राजाओं और घटनाक्रमों की सूची के बारे में बताते हैं ।

(2) पुरातात्त्विक स्रोत (Archaeological Sources ) - पुरातात्त्विक स्रोतों में अशोक के शिलालेख, अभिलेख और वस्तुओं के अवशेष जैसे चाँदी और तांबे के छेद किए हुए सिक्के शामिल हैं। मौर्य इतिहास के मुख्य पुरातात्विक स्रोत निम्नलिखित हैं-

(i) अशोक के अभिलेख (Records of Ashoka) - अशोक के अभिलेख, भारतीय उप महाद्वीप के विभिन्न भागों में शिलालेख, स्तंभ लेख और गुफा शिलालेख आदि के रूप में पाए जाते हैं। इन अभिलेखों की व्याख्या जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई. में की थी। ज्यादातर अभिलेखों में अशोक की जनता के लिए घोषणाएँ हैं जबकि कुछ में अशोक के बौद्ध धर्म को अपनाने के बारे में बताया गया है।

चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियाँ (Achievements of Chandra Gupta Maurya) 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य का विस्तार सम्पूर्ण भारत में किया। इन्होंने सम्पूर्ण भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँधने की कोशिश की। इन्होंने पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रमुख उपलब्धियों निम्नलिखित है-

(1) पंजाब पर विजय चन्द्रगुप्त मौर्य ने सर्वप्रथम पंजाब पर आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्त की। सिकन्दर ने पंजाब पर आक्रमण कर सम्पूर्ण राज्यों को जीतकर उसके शासन-प्रशासन की उचित व्यवस्था की थी जिससे वहाँ के राज्यों में काफी असंतोष था। पंजाब पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् सिकन्दर भारत से चला गया। सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में यूनानी राजाओं का प्रभुत्व समाप्त करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य ने पंजाब पर आक्रमण कर 316 ई.पू. में अपना अधिकार स्थापित कर लिया और उसने वहाँ से यूनानियों को बाहर खदेड़ दिया।

(2) मगध पर विजय पंजाब पर अपना साम्राज्य स्थापित कर चन्द्रगुप्त ने मगध के सम्राट घनानन्द को युद्ध में पराजित कर 321 ई.पू. में मगध पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। मगध की विजय में उत्तरापथ के राजा (पर्वतक) ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मगध की विजय में चन्द्रगुप्त गुरु चाणक्य का भी बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान था।

(3) मलय केतु के विद्रोह का दमन-मगध पर अपना साम्राज्य स्थापित करने से पूर्व ही चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरापथ के राजा पर्वतक से मित्रता कर ली थी क्योंकि वह हिमालय पर्वत के कुछ जिलों में शासन कर रहा था। मगध पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के पश्चात् ही पर्वतक की मृत्यु हो गई। पर्वतक की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मलय केतु गद्दी पर बैठा । विशाखदत्त की पुस्तक मुद्राराक्षस के अनुसार, मलय केतु ने नंदराज के मन्त्री राक्षस तथा अन्य पाँच सामन्तों की मदद से चन्द्रगुप्त के खिलाफ विद्रोह कर दिया परन्तु चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य ने अपनी कूटनीति के द्वारा विपक्षियों में फूट उत्पन्न कर दी और विवश होकर मलयकेतु को चन्द्रगुप्त की आधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

(4) दक्षिण भारत पर विजय- उत्तर भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत पर साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की। महाक्षत्रप रूद्रदामन के जूनागढ़ के अभिलेख के अनुसार, चन्द्रगुप्त का सौराष्ट्र पर अधिकार था। मालवा पर उसने लगभग 303 ई.पू. में अपना अधिकार स्थापित किया था और वहाँ की शासन सत्ता का भार पुष्यगुप्त वैश्य को दिया था। पुष्यगुप्त वैश्य ने ही सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि मालवा तथा काठियावाड़ चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन था।

मेगस्थनीज (Megasthenes) 

मेगस्थनीज (350 ई.पू. 200 ई.पू.) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षो तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने इण्डिका' नामक पुस्तक में किया है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र का बहुत ही सुन्दर और विस्तृत वर्णन किया है। वह लिखता है कि भारत का सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र है। यह नगर गंगा और सोन नदी के संगम पर बसा है। इसकी लंबाई साढ़े नौ मील और चौड़ाई पौने दो मील है। नगर के चारों ओर एक दीवार है जिसमें अनेक फाटक और दुर्ग बने हैं। नगर के अधिकांश मकान लकड़ी के बने हैं।

मेगस्थनीज ने लिखा है कि सेना के छोटे बड़े सैनिकों को राजकोष से नकद वेतन दिया जाता था। सेना के काम और प्रबन्ध में राजा स्वयं दिलचस्पी लेता था। रणक्षेत्रों में वे शिविरों में रहते थे एवं सेवा और सहायता के लिए राज्य से उन्हें नौकर भी दिए जाते थे।

पाटलिपुत्र पर उसका विस्तृत लेख मिलता है। पाटलिपुत्र को वह समानान्तर चतुर्भुज नगर कहता है। इस नगर में चारों ओर लकड़ी की प्राचीर है जिसके भीतर तीर छोड़ने के स्थान बने हैं। वह कहता है कि इस राजप्रासाद की सुन्दरता के आगे ईरानी राजप्रासाद सूस्का और इकबतना फीके लगते हैं। उद्यान में देशी तथा विदेशी दोनों प्रकार के वृक्ष लगाए गए हैं। राजा का जीवन बड़ा ही ऐश्वर्यमय है।

मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त के राजप्रासाद का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है। सम्राट का भवन पाटलिपुत्र के मध्य में स्थित था। भवन चारों ओर सुन्दर एवं रमणीक उपवनों तथा उद्यानों से घिरा था।

प्रासाद के इन उद्यानों में लगाने के लिए दूर-दूर से वृक्ष मैगाए जाते थे। भवन में मोर पाले जाते थे। भवन के सरोवर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ पाली जाती थीं। सम्राट प्रायः अपने भवन में ही रहता था और युद्ध, न्याय तथा आखेट के समय ही बाहर निकलता था। दरबार में अच्छी सजावट होती थी और सोने-चाँदी के बर्तनों से आँखों में चकाचौंध पैदा हो जाती थी। राजा राजप्रसाद से सोने की पालकी या हाथी पर बाहर • निकलता था। सम्राट की वर्षगाँठ बड़े समारोह के साथ मनाई जाती थी। राज्य में शान्ति और अच्छी व्यवस्था रहती थी। अपराध कम होते थे। प्रायः लोगों के घरों में ताले नहीं बन्द होते थे।

मौर्य प्रशासन (Mauryan Administration) 

मौर्य प्रशासन के अन्तर्गत भारत को पहली बार राजनीतिक एकता प्राप्त हुई। सत्ता का केन्द्र राजा होता था परन्तु वह निरंकुश नहीं होता था।

कौटिल्य ने राज्य के सात अंग (सप्तांग) बताए हैं, इनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है-

(1) राजा, 

(2) अमात्य, 

(3) जनपद, 

(4) दुर्ग,

(5) कोष,

(6) सेना और 

(7) मित्र ।

राजा द्वारा प्रधानमन्त्री व पुरोहित की नियुक्ति उनके चरित्र की भलीभाँति जाँच (उपधा परीक्षण) के बाद की जाती थी। ये लोग मन्त्रिमण्डल के अन्तरंग सदस्य थे। इनके अतिरिक्त मन्त्रिपरिषद भी होती थी। सम्राट पाँच विषयों पर मंत्रियों से सलाह लेता था। यह विषय निम्नलिखित थे- 

(1) देश रक्षा तथा विदेशों से सम्बन्ध,

(2) राज्य के आय के साधन,

(3) किसी कार्य का समय तथा स्थान का निर्धारण, 

(4) आकस्मिक आपदाओं के लिए व्यवस्था करना तथा, 

(5) कार्य सिद्धि अर्थात् शासन को सुचारु रूप से चलाना।

मौर्य प्रशासन को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न तीन भागों में विभाजित किया गया है-

(1) केन्द्रीय शासन 

(2) प्रान्तीय शासन

(3) स्थानीय शासन

सैन्य व्यवस्था (Military System) 

मौर्य प्रशासन में सेना का एक अलग विभाग था। सेना का प्रबन्ध एक मण्डल करता था। इसमें कुल तीस सदस्य होते थे। इसकी भी छः समितियाँ होती थीं जिसमें प्रत्येक में पाँच सदस्य होते थे। सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। चन्द्रगुप्त की चतुरंगिणी सेना थी जिसमें हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिक होते थे। उसके पास एक नौसेना भी थी।

प्लिनी के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में छः लाख पैदल, तीस हजार अश्वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ हजार रथ थे ।

अशोक महान(ASHOKA THE GREAT )

अशोक की धार्मिक नीति (Religious Policy of Ashoka)

जीवन के प्रारम्भिक काल में अशोक शिव को अपना इष्ट मानता था किन्तु कलिंग के युद्ध के बाद अशोक की प्रवृत्ति बदल गई। उसने अहिंसा को अपने जीवन का मूल मन्त्र बना लिया। अशोक के 13 शिलालेख से ज्ञात होता है कि कलिंग युद्ध के बाद ही देवानाप्रिय धम्म के अनुसरण, प्रेम और धम्म के उपदेश के प्रति उत्सुक हो गया।" अशोक का धम्म विश्व इतिहास में महान है क्योंकि इसमें मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किए गए है। अशोक ने सत्य, अहिंसा एवं मानव कल्याण को जीवन का अभिन्न अंग समझा। इसके लिए अशोक ने कुछ नियमों एवं सिद्धान्तों का विकास एवं प्रचार किया जो धम्म के नाम से प्रचलित है। माहू शिलालेख में अशोक ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसका बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास था। उसने मानव जीवन को सुखी तथा पवित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ व्यवहार नियमावली बनाई थी।

अशोक के धम्म के अन्तर्गत निम्न बिन्दुओं को सम्मिलित किया गया ।

(1) धार्मिक भावना तथा आचरण के विकास के लिए आत्मनिरीक्षण पर बल दिया। 

(2)माता-पिता, गुरुजन तथा वृद्धों की सेवा एवं सम्मान करना।

(3) दया, दान, सत्य, संयम, कृतज्ञता, दृढभक्ति एवं स्वच्छता का आचरण करना।

(4) मितव्ययिता तथा अल्प संग्रह करना । 

(5) सेवकों और श्रमिकों के साथ अच्छा आचरण करना।

(6) सभी के प्रति दया भावना रखना।

(7) अधैर्य, क्रूरता, क्रोध, अभिमान तथा घृणा से दूर रहना। 

(8) वाह्य आडम्बर तथा कर्मकाण्डों से दूर रहना।

मौर्य कालीन कला एवं संस्कृति (Art and Culture) of Mauryan Period) 

मौर्य कालीन कला एवं संस्कृति को निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) मौर्यकालीन समाज (Society at Mauryan Period) - मौर्यकालीन समाज की संरचना का ज्ञान कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की 'इण्डिका, अशोक के अभिलेख एवं रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख (प्रान्तीय शासन की जानकारी) से होता है।

परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी किन्तु मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्हें बाहर जाने की स्वतन्त्रता नहीं थी तथा बौद्ध एवं यूनानी साक्ष्यों के अनुसार समाज में सती प्रथा विद्यमान थी। बाहर न जाने वाली स्त्रियों को चाणक्य में 'अनिष्कासिनी' कहा है। स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्री को रूपजीवा कहा जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार समाज सात जातियों में विभाजित था। ये निम्न थे-

(i) दार्शनिक 

(ii) कृषक  

(iii) योद्धा  

(iv) गोपालक

(v) शिल्पी 

(vi) निरीक्षक 

vii) मन्त्री

(2) मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था (Economy of Mauryan Period)- मौर्यकाल में कृषि आर्थिक व्यवस्था का आधार थी तथा इस काल में प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया। भूमि राजा तथा कृषक दोनों के अधिकार में होती थी। मेगस्थनीज के अनुसार, भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है सौराष्ट्र प्रान्त में सुदर्शन झील का निर्माण कार्य चन्द्रगुप्त के. राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने करवाया था। मौर्यकाल में दो प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है- राजकीय भूमि तथा निजी भूमि । इस काल में कर (Tax) के रूप में भाग, बलि, हिरण्य आदि का प्रचलन था जिन्हें उपज के छठे भाग के कर के रूप में लिया जाता था। मौर्यकाल तक आते-आते व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। ये सिक्के सोने, चाँदी तथा ताँबे के बने होते थे।

(3) मौर्यकालीन धर्म (Religions of Mauryan Period)- मौर्य काल में वैदिक धर्म मुख्य धर्म था इसके साथ ही बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा आजीवक सम्प्रदाय का प्रचलन था। मौर्य सम्राटों में चन्द्रगुप्त जैन अनुयायी, बिन्दुसार आजीवक तथा अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था परन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता थी ।

(4) मौर्य कालीन कला (Art of Mauryan Period)- मौर्य कला का विकास भारत में मौर्य साम्राज्य के युग में (चौथी से दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) हुआ। सारनाथ और कुशीनगर जैसे धार्मिक स्थानों पर स्तूप और विहार का निर्माण सम्राट अशोक ने कराया। मौर्य काल का प्रभावशाली और पावन रूप पत्थरों के इन स्तम्भों में सारनाथ, इलाहाबाद, मेरठ, कौशाम्बी, संकिसा और वाराणसी जैसे क्षेत्रों में आज भी पाया जाता है। स्तूप किसी महान व्यक्ति की स्मृति को यथावत रखने के लिए बनाया जाता है। ठोस पाषाण स्तम्भ भी कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थरों से किया जाता था।

गुप्त साम्राज्य (GUPTA DYNASTY)

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की चारित्रिक विशेषताएँ (Characteristic Qualities of Chandra Gupta Vikramaditya)

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्त वंश के प्रतापी और लोक विख्यात सम्राट थे। उनके चरित्र की विशेषताएँ निम्न हैं-

(1) महान विजेता- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य महान विजेता था। उसने अपनी विजयों के माध्यम से विक्रमादित्य की उपाधि, धारण की।

(2) महान कूटनीतिज्ञ - चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य महान कूटनीतिज्ञ था जो उसकी युद्ध एवं विवाह नीति से स्पष्ट होता है।

(3) कुशल व प्रशासक- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य एक कुशल प्रशासक था। उसने अपनी प्रजा को सुख एवं समृद्धि प्रदान की।

(4) साहित्य प्रेमी - चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कला तथा साहित्य प्रेमी था। उसने अपने दरबार में अनेक विद्वानों को आश्रय दिया था।

गुप्तकालीन साहित्य (Literature of Gupta Period)- गुप्तकाल में साहित्य का अत्यधिक विकास हुआ है। इसलिए साहित्य की दृष्टि से गुप्तकाल को प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है।

प्रसिद्ध साहित्यकार एवं उनकी रचनाएँ 

(1) कालिदास-कालिदास को भारतीय शेक्सपियर कहा जाता है, शेक्सपियर अंग्रेजी साहित्यकार थे। कालिदास की मुख्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) ऋतुसंहार (कालिदास की पहली रचना) । 

(ii) मेघदूत।

(iii) अभिज्ञान शाकुन्तलम (भारत की पहली रचना जिसका विदेशी भाषा में अनुवाद हुआ)। 

(iv) मालविकाग्निमित्र ।

(v) कुमारसम्भवम् शिवजी से सम्बन्धित महाकाव्य । 

(vi) रघुवंशम् भगवान राम से सम्बन्धित । 

(2) विष्णु शर्मा-पंचतंत्र (बाइबिल के बाद विश्व का दूसरा सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचतंत्र है)। 

(3) मद्रि-रावण वध |

(4) शूद्रक-मृच्छकटिकम्।

(5) वात्स्यायन-कामसूत्र ।

(6) मारवि- किरातार्जुनीय ।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण (Causes of Downfall of Gupta Empire)

स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त वंश का अस्तित्त्व लगभग 100 वर्षों तक बना रहा। किन्तु धीरे-धीरे यह कमजोर होता गया। गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण पारिवारिक कलह और बार-बार होने वाले आक्रमणों को माना जाता हैं। जिनमें हूणों का आक्रमण प्रमुख था। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) हूणों का आक्रमण-आन्तरिक कलह व अंसतोष का लाभ उठाकर हूणों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर विजय प्राप्त कर ली। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने हूणों को पराजित कर दिया था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद वे सफल हो गए।

(2) आन्तरिक विद्रोह- गुप्त वंश के अन्तिम शासकों के काल में आन्तरिक विद्रोह प्रारम्भ हो गए थे जिस कारण साम्राज्य कमजोर होने लगा था और प्रान्तपतियों के विद्रोह से अस्त व्यस्त हो गया।

(3) साम्राज्य की विशालता-गुप्तकाल के सम्राटों ने साम्राज्य का विस्तार इतना अधिक कर दिया कि पूरे साम्राज्य में समुचित साधनों को उपलब्ध कराना मुश्किल हो गया। साधनों के अभाव में साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।

(4) उत्तराधिकार का युद्ध-गुप्तकाल में उत्तराधिकार के पद के लिए कई बार संघर्ष हुए जिससे पारिवारिक कलह और द्वेष बढ़ने लगा। शासक एक दूसरे के प्रति कूटनीति करने लगे जिसका परिणाम साम्राज्य के पतन के रूप में सामने आया।

(5) आर्थिक समस्याएँ-गुप्त शासकों ने अनेक युद्धों में विशाल धन व्यय किया जिस कारण राजकोष में आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो गया जो उनके पतन का कारण बना।

(6) धर्म का प्रभाव-गुप्त शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। वे सामरिक प्रवृति के थे किन्तु उत्तर गुप्त कालीन शासक बौद्ध धर्म को मानते थे जिस कारण सामरिक प्रवृत्ति के शासक कमजोर पड़ने लगे और उनका पतन होने लगा।

गुप्तकाल को स्वर्ण युग की संज्ञा का वर्णन 

गुप्तकाल - स्वर्ण युग (Gupta Period-Golden Era)  - गुप्तवंश भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इस साम्राज्य को भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। मौर्य वंश के पतन के बाद राजनैतिक एकता को पुनर्स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को जाता है। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। इस काल में साम्राज्य का चहुँमुखी विकास हुआ। गुप्तकाल में विकास को निम्न शीर्षकों द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) राजनैतिक एकता का युग-मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनैतिक एकता का अभाव रहा। कुषाणों और सातवाहनों ने राजनैतिक एकता लाने का प्रयास किया। परन्तु वे सफल नहीं हो सके गुप्त सम्राटों ने राजनैतिक एकता को पुनर्स्थापित करके सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँध दिया।

(2) शान्ति और सुव्यवस्था का युग- इस काल में उन्नति एवं विकास चरम पर थे। प्रजा में सुख एवं शान्ति का भाव था। पूरे राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था व्याप्त थी। 

(3) साहित्य की उन्नति का युग-इस काल में साहित्य और कला के क्षेत्र में महान उन्नति हुई।

(4) विज्ञान की उन्नति का युग-महान गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्तकाल के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। दशमलव पद्धति का विकास इसी काल की देन है। ज्योतिष, गणित, चिकित्सा सम्बन्धी कई ग्रन्थ इसी काल में सृजित हुए। इस काल की आर्यभट्टीयम, पंचसिद्धान्तिका वाग्भट का अष्टांग हृदय, पशुचिकित्सक पालकाप्य का हस्तुयुपवेद प्रसिद्ध कृतियाँ हैं । धनवन्तरि इस काल के प्रसिद्ध आयुर्वेद शास्त्री हैं।

(5) धार्मिक सहिष्णुता का युग-गुप्तकाल में धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। इस काल में धर्म के नाम पर कोई हिंसा नहीं हुई ।

(6) महान सम्राटों का युग-गुप्तकाल महान सम्राटों का युग रहा है। चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने शासन काल में असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। इन्होंने गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया।
(7) कला की उन्नति का युग - वास्तुकला, शिल्पकला, मूर्तिकला, चित्रकला संगीत के क्षेत्र में इस काल में पर्याप्त उन्नति हुई। सारनाथ का घमेख स्तूप, नालन्दा के विहार, भूमरा का शिव मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर, उदयगिरि की गुहा, भीतर गाँव का ईटों का मन्दिर इस समय की उत्कृष्ट कलात्मक उन्नति के प्रमाण हैं।

वर्धन वंश (हर्षवर्धन) [VARDHAN DYNASTY (HARSHVARDHAN)]


हर्ष का विजय अभियान (Conquests of Harsha) हर्ष की विजयों का वर्णन निम्नलिखित है- 

(1) वल्लभी के शासक से युद्ध-हर्षवर्धन ने वल्लभी के शासक ध्रुवसेन से युद्ध किया और उसे पराजित कर अपनी प्रथम विजय अर्जित की। इस विजय का उल्लेख नौसारी दान-पत्र में किया गया है। युद्ध में हर्ष द्वारा पराजित होने के बाद ध्रुवसेन ने गुर्जर नरेश दद्दा द्वितीय के पास शरण ली थी परन्तु ध्रुवसेन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली. अतः दोनों में संधि हो गई। ध्रुवसेन से हुई संधि को प्रगाढ़ बनाने के लिए हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से कर दिया। अतः दोनों की मैत्री प्रबल एवं प्रगाढ़ हो गई। तदुपरान्त हर्ष ने प्रयाग में एक महासभा का आयोजन किया जिसमें ध्रुवसेन एक राजा की हैसियत के साथ सम्मिलित हुआ।

(2) उत्तर भारत के अन्य राजाओं पर विजय - हर्ष ने जिन राज्यों की विजय की, उन सभी का विवरण प्राप्त नहीं है। मात्र कुछ विजय ही ऐसी हैं जिनका विवरण प्राप्त हो सका है, जिनमें प्रमुख हैं- कश्मीर, सिन्धु नेपाल आदि पर विजय |

(3) बंगाल के शासक से युद्ध- हर्षचरित के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि राजगद्दी पर आरूढ़ होते ही हर्षवर्धन ने शशांक को दण्ड देने का निश्चय कर लिया था। हर्ष और शशांक के मध्य हुए युद्ध पर इतिहासकारों में मतभेद है क्योंकि किसी का मानना है कि युद्ध हुआ था तो कोई इसे नकार देता है। अतः इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी का अभाव है।

(4) दक्षिण के पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध - (62.0ई.) पुलकेशिन द्वितीय का साम्राज्य नर्मदा नदी के दक्षिण में विद्यमान था। उत्तर भारत पर आक्रमण के पश्चात् हर्ष ने दक्षिण विजय की ओर रुख किया। पुलकेशिन द्वितीय एक शक्तिशाली शासक था लेकिन हर्ष उसे परास्त करने में समर्थ नहीं था। अतः उनके मध्य हुए युद्ध में हर्ष पुलकेशिन को विजित नहीं कर सका तथा हर्ष को युद्ध में अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी. ऐसा चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है।

हवेनसांग का भारत विषयक वर्णन (Travelogue of Hiuen Tsang)

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के समय भारत आया था। वह 629 ई. में चीन से भारत आया व 645 ई. में लौट गया अर्थात् यह लगभग 15 वर्ष भारत में रहा। वह नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने तथा भारत से बौद्ध ग्रन्थों को लेने आया था। हर्ष की प्रयाग सभा में सम्मिलित होने के बाद वह वापस चला गया। यह विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।

इसमें हर्ष से सम्बन्धित विवरण के साथ तत्कालीन जनजीवन की झाँकी मिलती है। उसके विवरण के आधार पर हमारे समक्ष प्राचीन भारत का एक सजीव चित्र उपस्थित हो जाता है। हवेनसांग ने हर्षवर्धन की प्रशासनिक अवस्था का चित्र खींचा है। हर्ष राज्य के कार्यों में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। उसकी दण्डनीति उदार थी लेकिन कुछ अपराधों में दण्ड-व्यवस्था कठोर भी थी। राज्य के प्रति विद्रोह करने पर आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती थी दिव्य प्रथा का प्रचलन था।

राजनैतिक दृष्टि से वैशाली व पाटलिपुत्र का महत्त्व घटने लगा था। उसके स्थान पर प्रयाग व कन्नौज का महत्त्व बढ़ने लगा था। तत्कालीन समाज को ह्वेनसांग ने चार भागों में बाँटा है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। शूद्रों को उसने खेतिहर कहा है।

विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी। विष्णु शिव व सूर्य के अनेक मन्दिर थे। जैनधर्म व बौद्धधर्म का भी प्रचलन था। हर्ष के धार्मिक दृष्टिकोण, दानशीलता व प्रजावत्सलता का भी उसने उल्लेख किया है।

दक्षिणी-पूर्वी द्वीप समूह यथा- जावा, सुमात्रा, मलाया आदि से व्यापार जलीय मार्ग द्वारा होता था। ह्वेनसांग ने हर्ष द्वारा आयोजित प्रयाग में आयोजित महामोक्ष परिषद का उल्लेख किया है। हवेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय का भी उल्लेख किया है जो उस समय की शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र था ।


Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.