मानव शरीर के कुछ मुख्य अंग (Some Major Parts of Human Body)
मानव शरीर के कुछ मुख्य अंग निम्नलिखित है-
(1) सिर (Head)- सिर शरीर के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है, जो ग्रीवा द्वारा धड़ से जुड़ा रहता है। सिर के दो भाग होते है-पहला भाग कपाल जो 8 अस्थियों से बना होता है तथा इसी में मस्तिष्क रहता है तथा दूसरा भाग कपाल के नीचे वाला हिस्सा होता है जिसे आनन (Face) कहते हैं। इसी में नेत्र, नासिका, कपाल, मुख तथा कान होते है।
(2) मस्तिष्क (Brain)-मस्तिष्क अधिकांश जीव जन्तुओं के शरीर का आवश्यक अंग है। वयस्क मनुष्य में इसका भार लगभग 1350 से 1400 ग्राम होता है। यह खोपड़ी की कपालगुहा में सुरक्षित होता है। मस्तिष्क शरीर में होने वाली सभी प्रकार की शारीरिक गतियों का संचालन करता है तथा शरीर के प्रत्येक कार्य तथा अंग में होने वाले कार्य को नियन्त्रित एवं नियमित रखता है।
(3) ग्रीवा (Neck)- सिर तथा घड़ के मध्य का पतला भाग ग्रीवा कहलाता है। जिसमें से होकर धमनियाँ वृक्ष से सिर में जाती हैं तथा शिराएँ तथा तन्त्रिकाएँ ग्रासनली और श्वासनाल वृक्ष में जाते है।
(4) घड़ (Trunk ) - शरीर के अनेक अंग धड़ में रहते है। घड़ एक बहुत बड़ी गुहा है, जिसमें हृदय और फुफ्फुस स्थित है। श्वासनाल वक्ष में आकर दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। एक शाखा प्रत्येक फुफ्फुस में आकर चली जाती है।
कंकाल तंत्र(SKELETON SYSTEM)
मानव कंकाल (Human Skeleton)- कंकाल तंत्र शरीर के ढाँचे का निर्माण करता है। मनुष्य के कंकाल तंत्र में कुल 206 हड्डियाँ होती हैं जो एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं तथा शरीर को एक निश्चित आकार प्रदान करती है। मानव कंकाल में अस्थियाँ और उपास्थियाँ होती हैं। नवजात शिशुओं में 300 हड्डियाँ होती हैं।
हमारे शरीर में हड्डियाँ कई आवश्यक खनिज पदार्थ से बनी होती हैं। लाल रूधिर कणिकाएँ हड्डियों की मज्जा में बनती हैं। मनुष्य तथा सभी कशेरुकी प्राणियों में कंकाल हड्डी का बना होता है।
कंकाल तंत्र के कार्य (Functions of Skeleton System)
कंकाल तंत्र के निम्नलिखित कार्य हैं-
(1) शरीर के ढाँचे का निर्माण करना ।
(2) माँसपेशियों से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों को गतिशीलता प्रदान करना ।
(3) शरीर को एक निश्चित आकार प्रदान करना।
(4) आन्तरिक अंगों की सुरक्षा करना ।
(5) हड्डियों के मज्जा (Marrow) में लाल रक्त कणिकाओं का उत्पादन करना ।
हड्डियों की संधियाँ (Joints of Bones)
शरीर में दो या दो से अधिक अस्थियाँ या उपास्थियाँ जहाँ मिलती हैं, उस स्थान को संधि या जोड़ कहते हैं। अधिकांश जोड़ किसी न किसी प्रकार की गति प्रदान करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जो गति प्रदान नहीं करते हैं। हड्डियों के जोड़ो निम्न प्रकार के होते है-
(1) कन्दुक खल्लिका सन्धि-इन जोड़ों द्वारा गति सभी दिशाओं में हो सकती है। इस प्रकार की संधि कन्धा तथा श्रोणि में पाई जाती है।
कूल्हों और कंधों में इस प्रकार का संयुक्त होता है, जिसमें लंबी हड्डी का अंत दूसरी हड्डी के खोखले में फिट हो जाती है।
(2) हिन्ज सन्धि-इस प्रकार की संधि में हड्डियाँ एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़ी रहती हैं कि गति केवल एक दिशा में हो सके। घुटनों और कोहनी में हिंज जोड़ होता है जो एक दिशा में गति की अनुमति देता है।
(3) कोणीय संधि - इस प्रकार की संधि से हड्डियाँ दो दिशाओं में गति कर सकती हैं। इस प्रकार की संधि कलाई तथा टखनों में होती है।
(4) धुराग्र संधि-धुराग्र संधि में हड्डियाँ छल्ले के ऊपर घूमती हैं या छल्ला हड्डियों के चारों ओर घूमता है। खोपड़ी का मेरुदण्ड पर घूमना तथा बहिः प्रकोष्ठिका तथा अन्तः प्रकोष्ठिका के जोड़ धुराग्र संधि के उदाहरण हैं।
पिवट जोड़ एक घूर्णन या घुमावदार गति की अनुमति देते है।
पेशियाँ (Muscles)
मांसपेशियां शरीर के ऐसे मांसल ऊतक (Meary tissue) है, जो शारीरिक अंगों को गति प्रदान करते हैं। शरीर की सभी गति क्रियाएं मांसपेशियों के संकुचन के कारण होती है।
मानव शरीर में लगभग 639 पेशियां होती हैं। पुरुष में उसके कुल भार का लगभग 42 प्रतिशत वजन पेशियों का होता है। महिलाओं में उसके कुल भार का लगभग 35 प्रतिशत पेशियां होती हैं।
पेशियों के प्रकार (Types of Muscles)
रचना तथा कार्य की दृष्टि से पेशियाँ तीन प्रकार की होती हैं-
(1) ऐच्छिक मांसपेशियाँ (Voluntary Muscles) – ये पेशियाँ मनुष्य की इच्छा शक्ति के नियन्त्रण में रहती हैं। इसीलिए इन्हें ऐच्छिक पेशियाँ कहते है। इनमें आड़ी धारियाँ पायी जाती हैं इसीलिए इन्हें रेखित पेशियाँ कहते हैं ।
ये पेशियाँ, अस्थियों से जुड़ी रहती है अतः इन्हें कंकाल पेशियाँ भी कहते हैं। प्रत्येक पेशी कोशिका में अनुदैर्ध्य रूप से व्यवस्थित पेशी तन्तुक पाए जाते हैं। प्रत्येक पेशी कोशिका बहुकेन्द्रीय होती है। ये पेशियाँ थकान महसूस करती हैं।
(2) अनैच्छिक मांसपेशियाँ (Non-Voluntary Muscles) - इनमें धारियाँ अनुपस्थित होती हैं। इसलिए इन्हें अरेखित पेशियाँ कहते हैं। इन पेशियों की गति पर व्यक्ति का नियन्त्रण नहीं होता है, इसीलिए इन्हें अनैच्छिक पेशियाँ कहते हैं।
इनकी पेशी कोशिकाएँ तर्कवाकार होती है। प्रत्येक पेशी तन्तु अशाखित एवं एककेन्द्रकीय होता है। ये पेशियों थकान महसूस नहीं करती हैं।
(3) हृदय पेशियाँ ( Cardiac Muscles)-ये हृदय की दीवारों में पायी जाने वाली अनैच्छिक पेशियाँ होती हैं। इनमें ऐच्छिक पेशियों के समान आडी धारियाँ होती हैं। पेशी तन्तु शाखान्वित तथा एककेन्द्रकीय होते हैं।
पेशीय गति (Muscle Motion)
पेशियों में सिकुड़ने व शिथिल होने की क्षमता होती है. इनको प्रेरक तन्त्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क या मेरूरज्जु से आदेश प्राप्त होता है, तो यह उसके अनुसार गति करती है. यदि अपनी अग्र बाँह को ऊपर उठाना है, तो द्विशिरस्का पेशी संकुचित होगी और त्रिशिरस्का शिथिल हो जाएगी और जब अपनी बाँह को सीधा करना है, तो दोनों पेशियों इसके विपरीत कार्य करेंगी। द्विशिरस्का शिथिल हो जाएगी और त्रिशिरस्का संकुचित होगी।
शरीर में जो अनेक छोटी-छोटी पेशियाँ हैं वे भी गति उत्पन्न करती हैं। नेत्रों में छोटी-छोटी एवं बहुत सूक्ष्म पेशियों नेत्रों के गोलों को घुमाती है, चेहरे की छोटी पेशियाँ अपनी गति के द्वारा चेहरे पर विभिन्न भाव उत्पन्न करती हैं. इन्हीं के कारण व्यक्ति के चेहरे पर उसके मनोभाव क्रोध, भय तथा प्रसन्नता का आभास होता है।
दाँत (Teeth)
एक वयस्क व्यक्ति के मुँह में 32 दाँत होते हैं। 16 दाँत ऊपर के जबड़े में और 16 दाँत नीचे के जबड़े में होते हैं, जिनमें मध्य से 8 दाई ओर और 8 बाई ओर होते हैं। ऊपर और नीचे के जबड़ों में दाँत एक मेहराब या चाप के रूप (Dental Arch) में व्यवस्थित होते हैं।
मनुष्य के मुँह में 4 प्रकार के दाँत होते हैं। ऊपर और नीचे के दोनों दंतचापों में सामने दो छेदक या कुंदनक (Incisor) दाँत होते हैं। इनका मुख्य काम खाद्य पदार्थों को कुतरना और काटना है। इनके बगल में एक भेदक (Canine) दॉत होता है। यह फाडने का काम करता है। इसके पीछे दो अग्रचवर्णक (Premolar) दाँत होते हैं तथा अग्रचवर्णक दाँत के तीन चौड़े चवर्णक (Molar) दाँत होते हैं।
इन चारों दाँतों का काम भोजन को चबाना है। एक दाँत आखिर में निकलता है, जिसे अक्ल दाढ़ (Wisdom Teeth) कहते है।
प्रत्येक दाँत तीन परतों से बना होता है। ऊपरी परत, सबसे कठोर होती है, जो एनेमल (Enamel) कहलाती है, जोकि मानव शरीर का सबसे कठोर पदार्थ भी है।
इसके नीचे की परत को डेन्टाइन (Dentine) कहते है और सबसे नीचे की परत को पल्प (Pulp ) कहते हैं। डेन्टाइन हड्डी की भाँति होता है तथा पल्प में रक्तवाहिनियाँ होती हैं। सबसे नीचे दाँत की जड़ या मूल होती है।
पाचन तन्त्र (DIGESTIVE SYSTEM)
भोजन सभी सजीवों की मूलभूत आवश्यकता है। इसी से सभी को कार्य करने के लिए ऊर्जा मिलती है। भोजन मानव की शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक है। भोजन के प्रमुख अवयव कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा है। अल्प मात्रा में विटामिन एवं खनिज लवणों की भी आवश्यकता होती है। भोजन से प्राप्त पोषक तत्व शरीर को स्वस्थ बनाने के साथ ऊतकों की मरम्मत एवं पुनः निर्माण भी करते है।
हमारा शरीर भोजन में उपलब्ध जैव रसायनों को उनके मूल रूप में उपयोग नहीं कर सकता। जटिल पोषक पदार्थों को अवशोषण योग्य सरल रूप में परिवर्तित करने की इस क्रिया को पाचन कहते हैं तथा हमारा पाचन तन्त्र इसे यान्त्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा सम्पन्न करता है। मनुष्य के पाचन तन्त्र के दो भागों को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया गया है-
(1) आहार नाल (Alimentary Canal)- आहार नाल मुख के अग्र भाग से प्रारम्भ होकर गुदा के पश्च द्वार तक होता है। इसके अन्तर्गत मुँह, ग्रसनी, ग्रासनली. आमाशय, छोटी आँत, बड़ी आँत, मलाशय, गुदानाल तथा मल द्वार आते हैं। मुख भोजन को ग्रहण करने, दाँत भोजन को चबाने जीन भोजन को उलटने पलटने में सहायता करता है। मुँह से स्रावित लार भोजन में मिलकर भोजन को मुलायम एवं चिपचिपा बनाती है जिससे भोजन को निगलना आसान हो जाता है।
(2) पाचन ग्रन्थियाँ (Digestive Glands) – पाचन ग्रन्थियों में प्रमुख रूप से लार ग्रन्थियाँ, अग्नाशयी ग्रन्थियों, यकृत एवं पित्त की थैली आदि आती हैं।
इससे विभिन्न प्रकार के पाचक रस एवं एन्जाइम निकलते हैं तथा पाचन क्रिया में सहयोग प्रदान करते है। इस प्रकार पाचन क्रिया में निम्नलिखित चार क्रियाएं होती है--
(i) निगलना (Ingestion)—मुख द्वारा भोजन निगला जाता है।
(ii) पाचन (Digestion) -भोजन में उपस्थित वसा, प्रोटीन एवं कार्बोज इस स्थिति में नहीं होते हैं कि शरीर में उनका अवशोषण वैसा का वैसा हो जाए इसके लिए भोजन के जटिल यौगिक सरलतम पदार्थों में टूटते हैं तभी उनका अवशोषण हो पाता है।
(iii) अवशोषण (Absorption ) - आहार नाल के कुछ अंगों जैसे छोटी एवं बड़ी आँत की दीवारों से कुछ उभार जैसी संरचनाएँ उपस्थित होती हैं इन्हें अंकुर (Villi) कहते हैं। इन्हीं के द्वारा पचा हुआ भोजन अवशोषित होकर रक्त कोशिकाओं एवं लसिका कोशिकाओं तक पहुँचाता है।
यहाँ से पचा हुआ भोजन रक्त संचरण के माध्यम से सभी अंगों तक पहुँचता है, इसी को अवशोषण कहते हैं।
(3) उत्सर्जन (Elimination) - भोज्य पदार्थ जिनका पाचन एवं अवशोषण शरीर के अंगों द्वारा नहीं हो पाता, वे अपच भोज्य पदार्थ मल के रूप में बाहर निकाल दिए जाते हैं। इसी को उत्सर्जन कहते हैं।
अमाशय (Stomach)
पाचन क्रिया का प्रमुख अंग आमाशय होता है। ग्रासनली द्वारा निगला हुआ भोजन अमाशय में ही संग्रहित होता है। यह उदर गुहा में मध्यच्छदा पेशी तथा हृदय के नीचे बाँयी ओर स्थित रहता है। अमाशय की दीवारें काफी मोटी व मॉसल होती हैं। इसकी लम्बाई 26cm तथा चौड़ाई 10cm होता है। इसका आयतन 1200-1500 मिली. तथा संग्रहण क्षमता 1.5-3.0 लीटर तक होती है।
आमाशय धीरे-धीरे खाली होता है तथा पेस्ट के रूप में भोजन पक्वाशय में पहुँचता है। यह पाचन, अवशोषण एवं ऐन्टीसेप्टिक का कार्य करता है।
छोटी आँत और बड़ी आँत (Small Intestine and Large Intestine)
छोटी आँत (Small Intestine)- छोटी आँत अमाशय के जठर निर्गम द्वार (Pylorie Sphincter) से आरम्भ होकर बड़ी आँत के प्रारम्भिक भाग के समीप आकर समाप्त होती है। छोटी आँत की लम्बाई 6-7 मीटर तक होती है। यह उदर गुहा के मध्य एवं निचले भाग में कुंडली के रूप में स्थित होती है। छोटी आँत का पेशीय स्तर कई तरह की गतियों उत्पन्न करता है। इन गतियों से भोजन विभिन्न स्रावों से अच्छी तरह मिल जाता है और पाचन की क्रिया सरल हो जाती है। छोटी आँत के प्रमुख रूप से तीन भाग होते हैं—
(1) पक्वाशय (Duodenum)
(2) मध्यान्त्र (Jejunum)
(3) शेषान्त्र (Ileum)
पक्वाशय को ग्रहणी भी कहते हैं। यह छोटी आँत का प्रारम्भिक भाग होता है। अमाशय में जब भोजन आंशिक रूप से पच जाता है तो यह पतले द्रव के रूप में पक्वाशय में पहुँचता है। छोटी आँत का मध्य भाग मध्यान्त्र कहलाता है। इसका मुख्य कार्य पाचन एवं अवशोषण होता है।
शेषान्त्र छोटी आँत का सबसे अन्तिम भाग है जो लगभग एक मीटर लम्बा होता है। इसमें कई प्रकार की पाचक ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। यह भोजन को आगे बड़ी आँत में प्रवेश पाने पर नियन्त्रण करता है साथ ही भोजन को विपरीत दिशा में आने से रोकता है।
बड़ी आँत (Large Intestine)-बड़ी आँत पाचन प्रणाली का अन्तिम भाग होता है। यह एक नली के समान होता है। इसका व्यास 6 सेमी तथा लम्बाई 150 सेमी होती है। यह छोटी आँत के अन्तिम भाग से आरम्भ होता है तथा मलाशय तक फैला होता है। यहाँ पर कोई पाचन क्रिया नहीं होती. है। मात्र जल व खनिज लवणों का अवशोषण, अपचित भोजन रेक्टम में मलद्वार के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। छोटी आँत व बड़ी आँत का जोड़ सीकम कहलाता है। सीकम के आगे अंगूठेदार संरचना ऐपेन्डिक्स कहलाती है।
यकृत (Liver)
शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि यकृत है जो पित्त का निर्माण करती है। इसकी लम्बाई 17 सेमी. तथा चौड़ाई 15 सेमी. होती है। इसका भार शरीर के भाग का लगभग 1/50 वां भाग होता है। यह प्राय 1.2 से 1.5 किग्रा तक होता है। बालकों में इसका नार शरीर के भार का 1/20 होता है। इसका बाहरी भाग चिकना होता है।
इसका पश्च सतह का किनारा अनियमित होता है। इस प्रकार यह उदर भाग के समस्त चौड़ाई में फैला रहता है। यकृत मुख्यतः दो खण्डों बायाँ एवं दायों में विभक्त होता है। दायाँ खण्ड बाएँ खण्ड की तुलना में अधिक बड़ा होता है। यकृत पोषक तत्वों का संग्रहण, संश्लेषण, उत्सर्जन चयापचय (Metabolism) एवं स्त्रावण का कार्य करता है। चयापचय के दौरान अत्यधिक मात्रा में ऊष्मा का उत्पादन होता है जो रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचकर उन्हें गर्मी प्रदान करती है।
परिसंचरण तन्त्र (CIRCULATORY SYSTEM)
परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System)- शरीर के रक्त परिसंचरण तन्त्र में रक्त हृदय एवं रक्त वाहिनियों का समावेश होता है। हृदय की पम्पिंग क्रिया द्वारा रक्त धमनियों (Arteries) एवं धमनिकाओं से होता हुआ सम्पूर्ण शरीर की कोशिकाओं (Cells) में पहुँचता है तथा उनमें ऑक्सीजन (Oxygen), आहार (Food), पानी (Water) एवं अन्य सभी आवश्यक पदार्थ पहुँचाता है और वहाँ से अशुद्ध (Impure) रक्त केशिकाओं तथा शिराओं (Capillaries and Veins) से होता हुआ हृदय में वापस आ जाता है। इस क्रिया को रक्त का परिसंचरण कहते हैं।
मानव एवं अन्य कशेरूक प्राणियों के परिसंचरण तन्त्र 'बन्द परिसंचरण तन्त्र' होते हैं अर्थात् रक्त कमी भी धमनियों, शिराओं एवं कोशिकाओं के जाल से बाहर नहीं जाता है। अकशेरूकों के परिसंचरण तन्त्र खुले परिसंचरण तन्त्र होते हैं। बहुत से प्राथमिक जीवों (Primitive Animal) में परिसंचरण तन्त्र होता ही नहीं है किन्तु सभी प्राणियों का लसिका तन्त्र (Lymphatic System) एक खुला तन्त्र होता है। परिसंचरण तन्त्र का कार्य सम्पूर्ण शरीर के प्रत्येक भाग में रूधिर को पहुँचाना है, जिससे उसे पोषण और ऑक्सीजन प्राप्त हो सके।
ह्रदय (Heart)
मानव हृदय लाल रंग का तिकोना, खोखला एवं मांसल अंग होता है जो हृदयी पेशीय ऊतकों का बना होता है। यह एक आवरण द्वारा घिरा होता है जिसे हृदयावरण कहते हैं। इसमें पेरिकार्डियल द्रव भरा होता है जो हृदय की बाह्य आघातों से रक्षा करता है। हृदय पम्प की भाँति कार्य करता है।
यह अन्दर के तापमान को बनाए रखने तथा कोशिकाओं को नियमित रूप से सन्तुलित आहार पहुँचाने का कार्य करता है। यदि हृदय अपना कार्य बन्द कर दे तो शरीर में लैक्टिक अम्ल, एसिड, फॉस्फेट, कार्बन डाई ऑक्साइड आदि पदार्थों की मात्रा बढ़ने लगेगी, जिसके फलस्वरूप कोशिकाओं में जीवन समाप्त हो जाएगा तथा व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी। हृदय के अध्ययन को कार्डियोलॉजी कहते हैं। एक वयस्क मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72 बार धड़कता है जबकि एक नवजात शिशु का 90 120 बार धड़कता है। - हृदय का प्रमुख कार्य शरीर के विभिन्न भागों तक रक्त को पहुंचाना है।
आहार एवं पोषण (FOOD AND NUTRITION)
आहार (Food)
ऊर्जा को प्राप्त करने हेतु जिन आवश्यक पदार्थों को हम खाद्य के रूप में ग्रहण करते है उसे आहार कहते है। यह हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है जिससे व्यक्ति अपने समस्त कार्यों का संचालन करते हुए पूर्ण रूप से स्वस्थ रहता है।
आहार के कार्य (Functions of Food)- भोजन शरीर की आवश्यकता है। समस्त शारीरिक कार्यों के निर्वहन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा ऊर्जा हेतु भोजन की भोजन मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करता है-
(1) ऊर्जा के उत्पादन में,
(2) शरीर के निर्माण में
(3) रोगों से रक्षा करने में,
4) शारीरिक क्रियाओं का संचालन नियन्त्रण एवं नियमन करने मे ।
पोषण वह किया है जिसके द्वारा ग्रहण किया गया भोजन शरीर में सूक्ष्म इकाई में बदल जाता है तथा उपयोगी बनकर इसके द्वारा सम्पादित कार्य कर सकता है। सरल भाषा में शरीर में कार्य करता हुआ भोजन पोषण कहलाता है। पोषण का एक विज्ञान के रूप में परिचय सर्वप्रथम लेवॉयजर (Lavoiser) ने दिया था। पोषण विज्ञान की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
पोषण (Nutrition)
चैम्बर्स डिक्शनरी के अनुसार, "पोषण (Nutrition) का अर्थ है Act or Process of Nourishing" अर्थात् भोजन चूषण कार्य अथवा प्रक्रिया। चूपक शब्द से तात्पर्य है- भोजन के प्रमुख तत्वों को खींचकर शरीर का एक अंग बनाना।"
आहार के प्रमुख पोषक तत्व(Major Nutrients in the Diet)
आहार में विभिन्न जटिल रासायनिक पदार्थ शरीर में होने वाली विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को सम्पन्न करने एवं स्वास्थ्य को बनाए रखने हेतु उचित मात्रा में आवश्यक होते हैं, उन्हें पोषक तत्व कहते हैं। ये पोषक तत्व वे रासायनिक पदार्थ होते हैं जो शरीर की विभिन्न क्रियाओं एवं स्वास्थ्य के लिए एक विशेष मात्रा में आवश्यक होते हैं। ये पोषक तत्व निम्न प्रकार के होते हैं-
(1) प्रोटीन (Protein) - प्रोटीन एक कार्बनिक यौगिक है । प्रोटीन में मुख्यतः कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन आदि तत्व होते हैं। प्रोटीन शरीर की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ शरीर का निर्माण करने के लिए आवश्यक है। शिशु अथवा बाल्यावस्था में प्रोटीन की मात्रा की अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि उस समय शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। प्रोटीन का निर्माण अमीनों अम्ल के द्वारा होता है। ऑक्सीजन की उपस्थिति में प्रोटीन का ऑक्सीकरण होता है। प्रोटीन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होता है।
प्रोटीन की कमी को दूर करने हेतु प्रोटीन युक्त खाद्य-पदार्थों का सेवन करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को प्रोटीन युक्त खाद्य-पदार्थों जैसे- माँस, अण्डा, दूध, मछली, सूखे मेवे आदि का सेवन करना चाहिए। ये प्रोटीन उत्पादक खाद्य-पदार्थ हैं। इसके अतिरिक्त प्रोटीन मुख्यतः सभी प्रकार की दालों तथा फलियों में पाया जाता है। प्रोटीन की कमी को दूर करने हेतु प्रतिदिन के आहार में प्रोटीन युक्त पदार्थों को अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए।
प्रोटीन की कमी से क्वाशिरकोर, कुपोषण तथा विकार हो जाता है।
(2) वसा (Fat)-वसा समस्त पोषक तत्वों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका निर्माण मुख्य रूप से कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से है। वसा तैलीय पदार्थ जैसे- घी, मक्खन, तेल इत्यादि में अथवा इसके प्रयोग से बने खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।
यह शरीर को अधिक समय तक ऊर्जा प्रदान करती है। इसकी मात्रा अधिक होने पर यह त्वचा के नीचे बसा के रूप में इकट्ठा हो जाता है तथा शरीर को आवश्यकता -पड़ने पर यह टूटकर शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।
भोजन में वसा की समुचित मात्रा होना अति आवश्यक है। इसकी कमी से बच्चों तथा किशोरों की शारीरिक वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। त्वचा खुरदरी तथा फटने लगती है।
(3) कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) - मनुष्य को क्रियाओं हेतु ऊर्जा की बहुत आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट के द्वारा प्राप्त होती है। सक्रिय अथवा निष्क्रिय अवस्था में शरीर ऊर्जा का उपयोग करता है। सक्रिय अवस्था, जैसे- श्वसन, पाचन, निद्रा इत्यादि में ऊर्जा की खपत होती है।
कार्बोहाइड्रेट सभी प्रकार के अनाजों, जैसे- ज्वार, बाजरा, गेहूँ, चावल, मकई तथा इनसे बने सभी उत्पादों से प्राप्त होता है। सभी दालों, मीठे फलों, कन्द वाली सब्जियों, जैसे- आलू, शकरकन्द, अरबी, शलजम, गाँव-गोमी, चीनी, शहद आदि कार्बोहाइड्रेट के प्रमुख स्रोत हैं।
कार्बोहाईड्रेट का प्रमुख कार्य शरीर को ऊर्जा प्रदान करना है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने विभिन्न कार्यों का सम्पादन करता है। शारीरिक ताप को एक समान बनाए रखने में भी कार्बोहाइड्रेट की भूमिका होती है।
(4) विटामिन्स (Vitamins)- शरीर के निर्माण एवं संचालन में विटामिन आवश्यक नहीं है परन्तु शरीर की आन्तरिक क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है। इसकी कमी से शरीर रोगग्रस्त हो जाता है, इसलिए इसकी प्रचुर मात्रा आवश्यक है। यह शरीर में उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं और विभिन्न शारीरिक क्रियाओं को सम्पन्न करने में सहयोग देते हैं। खाद्य पदार्थों में पर्याप्त विटामिन्स सम्मिलित करने से शरीर में विभिन्न रोगों से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। विटामिन ए त्वचा, श्लेष्मिक झिल्ली एवं आँखों को स्वस्थ बनाए रखता है। शरीर चुस्त-दुरस्त तथा स्वस्थ बना रहता है।