मॉण्टेसरी प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
(1) आत्मकथा का सिद्धान्त (Principle of Self-Development)- मॉण्टेसरी का विश्वास है कि बालक का विकास बाहरी शक्तियों से नहीं वरन् आन्तरिक शक्तियों से होता है । इसी कारण वह कहती है कि शिक्षक को बालक की आन्तरिक शक्तियों का विकास करना चाहिए । मॉण्टेसरी का कथन है, "बालक एक शरीर है जो बढ़ता है, एक आत्मा है जो विकसित होती है। विकास के इन दोनों स्वरूपों को न हमें कुरूप बनाना चाहिए और न ही उन्हें दबाना चाहिए। परन्तु उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब किसी शक्ति का क्रम के अनुसार विकास हो।"
(2) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom )— मॉण्टेसरी के अनुसार बालक का स्वाभाविक विकास उसी दशा में हो सकता है जब उसको सीखने के लिए स्वतन्त्र वातावरण मिले । यदि बालक को स्वतन्त्रता नहीं मिलती है तो उसकी जीवन-शक्ति का दमन हो सकता है। अतः बालक को अपने विचारों, भावनाओं तथा रुचियों को व्यक्त करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए।
(3) स्व-शिक्षा का सिद्धान्त (Principle of Audo-Education) - मॉण्टेसरी का कथन है, "बालक को स्वयं ही ज्ञान प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए। शिक्षक को उसके कार्य में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए।" बालक अपने प्रयासों से ही शिक्षा प्राप्त कर सकता है । इसी कारण मानसिक विकास का कार्य बालक का उसके द्वारा किया गया कार्य होना चाहिए।
(4) ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Sense Training)— मॉण्टेसरी का विश्वास है, "ज्ञानेन्द्रियाँ ही ज्ञान का द्वार हैं।" इसी कारण पालक की ज्ञानेन्द्रियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो बालकों के द्वारा प्राप्त ज्ञान अस्पष्ट तथा अधूरा रहेगा। मॉण्टेसरी कहती हैं, "7 वर्ष की आयु तक बालकों की इन्द्रियाँ विशेष रूप से क्रियाशील होती हैं, अतः इस अवस्था में ही उसकी ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ।"
(5) माँसपेशियों के प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Muscular Training)—जिस प्रकार बालकों की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। उसी प्रकार उनकी माँसपेशियाँ को भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। माँसपेशियों के प्रशिक्षण के लिए बालकों को खेलने-कूदने तथा परिश्रम का अवसर दिया जाना चाहिए । इसी कारण मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षण पद्धति में माँसपेशियों का प्रशिक्षण आवश्यक बताया है।
(6) व्यक्तित्व के विकास का सिद्धान्त (Principle of the Development of Individuality)—मॉण्टेसरी के अनुसार बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास किया जाना चाहिए । बालक अपने व्यक्तित्व का विकास शिक्षक के पथ-प्रदर्शन में ही कर सकता है। मॉण्टेसरी का कथन है, "बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाना चाहिए। उनकी अवहेलना या उपेक्षा करना उचित नहीं है।" बालकों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए जिससे उसकी भावनाओं को ठेस लगे । विद्यालय का वातावरण स्वतन्त्र होना चाहिए ।
(7) खेल-विधि द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त (Principle of Education Through Play way)—– मॉण्टेसरी भी अपनी शिक्षण-पद्धति में खेल के सिद्धान्त को प्रमुख स्थान देती हैं । इस पद्धति में बालक विभिन्न उपकरणों से खेलकर अक्षरों, गणित तथा रेखागणित का ज्ञान प्राप्त करता है ।
(8) सामाजिक प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Social Training) - मॉण्टेसरी यह आशा करती है कि शिशु गृह में बालक अपने कार्य स्वयं करें। ये कारें बालक को होते हैं—कमरा साफ करना, भोजन परोसना तथा पशुओं की देखभाल करना । में बालक स्वयं कार्य करते हैं या वे अन्य बालकों के सहयोग से कार्य करते हैं।
मॉण्टेसरी प्रणाली की विभिन्न शिक्षण पद्धतियाँ
मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षण-पद्धतियों को तीन भागों में विभाजित किया है। यह हैं-
(1) कर्मेन्द्रियों की शिक्षा (Motor Education)—इस प्रणाली में सर्वप्रथम बालकों प्रारम्भिक की कर्मेन्द्रियों की शिक्षा दी जाती है। इसके लिए बालकों से अनेक प्रकार के कार्य लिये निरन्तर उ जाते हैं; जैसे—उठना-बैठना, घूमना, दौड़ना, कपड़े पहनना तथा उतारना और अपनी वस्तुओं र वस्तुएँ यथा स्थान रखना । इन कार्यों को करने में बालकों को आनन्द आता है तथा उनकी कर्मेन्द्रियों को भी प्रशिक्षित किया जाता है । इससे बालक अपने शरीर का सन्तुलन भी सीख जाता है ।
(2) ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा (Sensory Education)— मॉण्टेसरी इन्द्रिय अनुभव ही बालक की शिक्षा का मुख्य आधार मानती हैं। इसी कारण वह कहती हैं कि बालक को अधिक से अधिक इन्द्रिय अनुभव कराये जाने चाहिए । ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा का महत्त्व बताती हुई मॉण्टेसरी इस प्रकार लिखती हैं-"शिक्षण-विधि में इन्द्रियों की शिक्षा का निश्चित रूप से अधिकतम महत्त्व होना चाहिए ।" मॉण्टेसरी प्रणाली में स्पर्शेन्द्रिय, चक्षुन्द्रियाँ, श्रवणोन्द्रिय, स्वादेन्द्रियों आदि को प्रशिक्षित करने के लिए बालकों को विभिन्न उपकरण प्रदान किये जाते हैं।
(3) पढ़ने-लिखने व गणित की शिक्षा (Teaching of Three R's)—मॉण्टेसरी पढ़ने की अपेक्षा लिखना अधिक सरल मानती हैं। लिखने में केवल माँसपेशियों का प्रयोग किया जाता है, जबकि पढ़ने में स्वर तथा उच्चारण सम्बन्धी मानसिक शक्तियों का भी प्रयोग किया जाता है। इसी कारण बालक को पढ़ना तब सिखाया जाना चाहिए जब उसको भली-भाँति लिखना आ जाए ।
मॉण्टेसरी प्रणाली में पढ़ने, लिखने तथा गणित शिक्षण की विधियाँ इस प्रकार हैं-
(i) लिखना (Writing)—– मॉण्टेसरी प्रणाली में जब बालक को लिखना सिखाया जाता है तो उससे तीन कार्य करवाये जाते हैं—
(अ) लेखनी पकड़ने का अभ्यास
(ब) अक्षरों के स्वरूप का ज्ञान कराना, तथा
(स) अक्षरों का उच्चारण ।
उपरोक्त विधि के द्वारा बालक 12 माह में लिखना सीख जाता है
(ii) पढ़ना (Reading)– बालक को पढ़ना सिखाने के लिए शिक्षिका किसी परिचित वस्तु को मेज पर रख देती है और श्यापट्ट पर उसका नाम लिख देती है । फिर बालक को उस शब्द को बार-बार पढ़ाया जाता है । शब्दों का पढ़ना आ जाने के पश्चात् बालक को वाक्य पढ़ना सिखाया जाता है ।
(iii) गणित (Arithmetic)- इस पद्धति में गणित सिखाने की कोई नवीन विधि नहीं है । गणित का ज्ञान अनेक छोटे और बड़े डण्डों या गोलियों की सहायता से कराया जाता है । इन्हीं की सहायता से बालक को जोड़, बाकी, गुणा और भाग सिखाया जाता है।