हर्ष की मृत्यु के उपरान्त भारतवर्ष की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गयी। इस युग में नये राजवंशों की स्थापना हुई जो सामूहिक रूप से राजपूत कहलाये। अतएव इस युग का नाम राजपूत युग पड़ा। यह काल 647 ई. में तक रहा ।
राजपूतों की उत्पत्ति का प्रश्न भारतीय इतिहासकारों में अत्यन्त विवाद गये। इस प्र समस्त राजप वंशों की आत्माभिम जाती है। महाभारत में 'राजपूत' शब्द का उल्लेख कुलीन क्षत्रिय के लिए किया गया हर्षचरित में राजपूत शब्द का प्रयोग सैनिकों के लिए किया गया है।
अब तक राज की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई सर्वमान्य मत स्थापित नहीं किया जा सका है। ह सम्बन्ध में विद्वानों ने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं-
(1) विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त - प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड अग्निकुण्ड वाली अनुश्रुति के आधार पर राजपूतों को विदेशी बतलाया है। उन कथन है कि राजपूत सीथियन या शकों के वंशज थे जो छठी शताब्दी के लगभग राजपूत में प्रविष्टि हुए। इन्हीं विदेशी विजेताओं को, जब वे शासक बन बैठे तो उन्हें अभि था। संस्कार द्वारा पवित्र कर हिन्दू जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत ले लिया गया। चूँकि व शासन का काम करते थे और यही काम क्षत्रियों के भी थे, अतएव उन्हें क्षत्रियों की श्रेणी में रखा गया है और वे राजपूत कहलाये।
(2) अग्निकुण्ड का सिद्धान्त—कुछ विद्वानों ने 'पृथ्वीराज रासो' के आधार पाव इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि प्रतिहार, परमार, चालुक्य तथा चौहान राजपूत अग्निवंशी हैं। आबू पर्वत पर वशिष्ठ जी का यज्ञ एक अग्निकुण्ड था जिससे परमार, प्रतिहार, चालुक्य तथा चौहान आदि राजपूतों की उत्पत्ति हुई। राजपूतों के ये चार वंश अग्निवादी कहलाते हैं। इन जातियों से सम्बन्धित अन्य प्रमाणों से इनका सम्बन्ध क्षत्रिय-कल से स्पष्ट होता है। राजपतों की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त ऐतिहासिक दृष्टि से उचित नहीं जान पड़ता है।
(3) भारतीय उत्पत्ति का सिद्धान्त-गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रिय जाति से ही पानी गयी है। उन्होंने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए शक और अर्णोरा राजपूतों की समानता को महत्व नहीं दिया, क्योंकि वे समानताएँ उनके आगमन के किया। पहले जातियों में भी पायी जाती हैं, अतः राजपूतों की उत्पत्ति शकों से नहीं प्राचीन क्षत्रियों से हुई। गौरीशंकर ओझा, सी. पी. वैद्य राजपूतों को सूर्यवंशी तथा नन्दवंशी मानते हैं। आज राजपूतों में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वे विदेशियों के भारत गमन से पूर्व प्राचीन भारतीय क्षत्रियों में प्रचलित थे।
(4) मिश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त-राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों का विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि, "इन दोनों सिद्धान्तों को इन्हीं रूपों में मान लेना उचित नहीं है। वस्तुतः राजपूत या क्षत्रियों का जो समूह आज है, उसका मूलाधार व्यवसाय है। उसमें विभिन्न जातियों के लोग सम्मिलित हैं। ये लोग ऐसे हैं जिनमें राज्य कार्यों को अपना लिया था और जिन्होंने राज्यों के निर्माण में सहायता पहुँचाई।" इस प्रकार व्यवसाय आदि की समानता के कारण विदेशी आक्रमणकारियों तथा क्षत्रियों का सम्मिश्रण स्वाभाविक-सा मालूम पड़ता है। अन्य सभी सिद्धान्तों को ऐतिहासिक या तर्कसंगत नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि समस्त राजपूतों को विदेशी मान लें तो यह प्रश्न उठता है कि यहाँ के क्षत्रिय कहाँ चले गये। इस प्रकार यह सिद्धान्त अधिक उचित प्रतीत होता है कि राजपूतों के विभिन्न वंशों की उत्पत्ति भारत के प्राचीन क्षत्रिय कुलों से हुई है, उनमें प्राचीन परम्परागत आत्माभिमान, राष्ट्र-प्रेम, हिन्दू धर्म के प्रति गौरव की भावना सामान्यतः बराबर पायी जाती है। कालान्तर में कुछ विदेशी आक्रमणकारी भी भारत में आये और वे इन्हीं क्षत्रियों में मिल गये और भारतीय क्षत्रियों ने इन्हें मिला लिया। बाद में यह मिश्रित वर्ग राजपूत नाम से अभिहित हुआ।